Monday, September 17, 2007

दैट सिंकिंग फीलिंग

यह एक अंग्रेजी मुहावरा है, जिसका इस्तेमाल पत्रकारिता में अक्सर आर्थिक मंदी के दौर को रेखांकित करने के लिए किया जाता है। लेकिन पानी में डूबते वक्त होने वाला एहसास सचमुच कैसा होता है, इसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। बचपन से लेकर आज तक ऐसे कुल दो या तीन तजुर्बे मुझे हैं, लेकिन आखिरी बार जो सन् 2001 में हुआ था उसका कोई जवाब नहीं है।

सावन के महीने में मां की इच्छा गंगा नहाने और वहां से जल लाकर शिव को चढ़ाने की थी। गाजियाबाद में हमारे घर से करीब सत्तर किलोमीटर दूर गढ़ मुक्तेश्वर इस काम के लिए बिल्कुल सही जगह थी। वहां पहुंचते-पहुंचते हमें दोपहर हो गई। मां ने स्नान किया और दान-दक्षिणा की तैयारी करने लगी तो मैं भी नदी में उतर पड़ा। तैरना मुझे आता नहीं लेकिन नदी में नहाने का मोह भी नहीं छूटता। सोचा मैं भी मां की तरह किनारे ही नहाकर लौट आऊंगा। लेकिन घुटने भर पानी में नहाने का कोई मतलब नहीं लगा, सो सरकते-सरकते थोड़ा भीतर तक चला गया कि कम से कम डुबकी तो लगाई जा सके।

जहां मैं नहा रहा था वह शायद घाट की आखिरी सीढ़ी थी लेकिन बारिश में बढ़ी नदी ने उसपर डेढ़-दो इंच चिकनी मिट्टी जमा रखी थी। एक-दो डुबकियां ठीक-ठाक गईं लेकिन तीसरी डुबकी में पांव फिसलने लगे। मैंने ऊपर वाली सीढ़ी पर पहुंचने की कोशिश की लेकिन लगा कि किनारे का पानी गोल-गोल घूम रहा है। इसके ठीक बाद मेरे पांव आखिरी सीढ़ी से फिसलकर नीचे रेतीली जमीन से जा लगे। वहां भी पानी गर्दन तक ही था और बारिश का मौसम न होता तो शायद चिंता की कोई बात न होती। लेकिन बहाव बहुत तेज था और पांवों के नीचे से शब्दशः जमीन खिसक रही थी।

मैंने जमीन में पांवों के अंगूठे गड़ाकर पंजों के बल खुद को ऊपर उठाते हुए नाक ऊपर रखने की भरपूर कोशिश की लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। इसके बाद मैंने अपने हाथ ऊपर उठाए और जो भी थोड़ी-बहुत सांस भीतर आ पाई थी उसे रोक कर छप-छप करते उसी तरह किनारे की तरफ बढ़ने का प्रयास किया जैसा नहर या पोखरे के छिछले पानी में बचपन में किया करता था। लेकिन इसका कोई फायदा नहीं होने वाला था क्योंकि अबतक नदी मुझे खींचकर मंझधार की तरफ ले जाने लगी थी।

खुद पर अब मेरा कोई नियंत्रण नहीं रह गया था फिर भी अपना सिर और दायां हाथ बाहर निकालकर मैंने किसी को आवाज देने की कोशिश की। पता नहीं यह आवाज किसी तक पहुंची या नहीं लेकिन बाद में मां ने बताया कि आस-पास की औरतें बोलने लगी थीं कि कोई डूब रहा है। तभी एक औरत ने मां से कहा कि जो आपके साथ अभी खड़े थे वही डूब रहे हैं शायद।

मैं डूब रहा था औऱ मुझे अपने भीतर पानी भरने की आवाज कुछ वैसी ही सुनाई दे रही थी जैसे ट्यूबवेल की मोटी धार किसी संकरे गड्ढे या घड़े में जा रही हो। मैं मर रहा हूं, ऐसी कोई बात उस वक्त मेरे दिमाग में नहीं थी। एहसास बस इतना सा था कि अब कोशिश करना बेकार है, जो होना होगा वह होगा और उसे करने वाला कोई और ही होगा। अब आखिरी कोशिश की तरह नहीं, सिर्फ इसी अंतिम पराजय बोध के साथ मैंने एक बार फिर अपना दायां हाथ ऊपर किया और फिर नीचे होता चला गया।

उसी समय मुझे लगा कि मेरे पास कोई जोर-जोर से कुछ बोल रहा है और पानी के ऊपर कोई काली सी चीज डोल रही है। मेरे भीतर अभी ताकत मौजूद थी- इतनी कि अपने नजदीक किसी को पा जाता तो शायद खुद बचने की कोशिश में उसे डुबोकर मार डालता। तट पर मचा हाहाकार सुनने के बाद अपनी नाव लेकर मेरे बिल्कुल पास चले आए मल्लाहों को यह बात अच्छी तरह पता थी। उनके दो लड़के पानी में कूदे जरूर लेकिन उन्होंने मुझे पकड़ने की गलती नहीं की, बस घेरकर रखा ताकि नदी में और गहरे न चला जाऊं। बाद में मुझे आश्चर्य हुआ कि सिर्फ आधे मिनट या इससे भी कम समय में मैं बिल्कुल किनारे से बहकर इतनी गहरी धारा में कैसे चला गया।

सुना है, योगी जन बहुत देर तक सांस रोक लेते हैं। हमारे-आप जैसे सामान्य लोग भी सांस बंद करके 45 सेकंड यानी पौन मिनट तक चैन से रह सकते हैं। लेकिन यह प्रक्रिया पानी में डूबने से बिल्कुल अलग है। इसमें दिमाग को जहां-तहां से थोड़ी-बहुत ऑक्सीजन मिलती रहती है और सांस रोकने के साथ-साथ सचेतन ढंग से आप अपने बाकी मेटाबोलिज्म को भी मंद करते जाते हैं।

इसके विपरीत डूबते हुए आपका शरीर जरूरत से कुछ ज्यादा ही सक्रिय होता है और ऑक्सीजन की जरूरत भी उसी हिसाब से बढ़ जाती है। वैज्ञानिकों की राय है कि सिर्फ 30 सेकंड के लिए ऑक्सीजन की सप्लाई पूरी तरह ठप हो जाए तो दिमागी स्नायु मरने लगते हैं। एक तरह से यह टोटल पैरालिसिस की शुरुआत होती है। मतलब यह कि बाहरी दुनिया को चाहे जो भी लगे, डूबने वाले के लिए यह सिर्फ आधे मिनट का खेल होता है।

इससे कम समय में ही मेरे हाथ मल्लाहों की फेंकी लग्गी तक पहुंच गए होंगे। मेरे हाथों का कुछ इंतजाम हो जाने और इस तरह अपने लिए खतरा कम हो जाने के बाद पानी में तैर रहे लड़कों ने मुझे इधर-उधर से थोड़ा सहारा दिया लेकिन मैं नाव के ठीक नीचे था और चढ़ने की कोशिश में उसकी किसी कील से चोट खा बैठा था। यह चोट भी ठीकठाक थी, इसका अंदाजा मुझे किनारे पहुंचने के बाद हुआ। वहां लोगों ने मेरा पेट दबाकर पानी निकाला, जो इसके पहले मैंने सिर्फ रेखाचित्रों में देखा था।

इतनी देर में मां की हालत खराब हो चुकी थी। अपनी दो संतानों के साथ जानलेवा हादसे पहले ही देख चुकने के बाद यह वाकया उसके लिए भीतरी तौर पर बहुत भारी पड़ गया था। बार-बार यही कह रही थी कि आज कुछ हो जाता तो मैं क्या करती, कहां जाती। इसके बावजूद मैंने उससे यह वचन ले ही लिया कि घर चलकर यह सारा किस्सा किसी को नहीं बताएगी। कम से कम एक-दो दिन तक तो बिल्कुल नहीं, क्योंकि ऐसा होता तो इसे रेशनलाइज कर पाना मेरे लिए बहुत मुश्किल हो जाता।

3 comments:

Priyankar said...

क्या करते हैं महाराज!

अभय तिवारी said...

आप का लिखा पढ़ के मेरे भेतर होने लगी.. दैट सिंकिंग फ़ीलिंग..

Udan Tashtari said...

हम्म!! लगा कि मैं डूब रहा हूँ!! व्हाट ए सिकनिंग फीलिंग!!!