Wednesday, September 5, 2007

बम की दीक्षा

उनका असली नाम अरूप पॉल था और लोग उन्हें दीना जी के नाम से जानते थे। जगदीप से मिलती-जुलती हंसमुख शक्ल वाले दीना जी नक्सल आंदोलन के शुरुआती दौर में ही इससे जुड़ गए थे। इमर्जेंसी के दौरान गिरफ्तारी और टॉर्चर झेलने के बाद भागलपुर सेंट्रल जेल में कई साल बंद रहे। 1980 के आसपास रिहा हुए और फिर दुबारा उसी काम में जुट गए। ये सारी बातें दीना जी के बारे में काफी बाद में पता चलीं। वे हर तरफ घूमने वाले, सबसे परिचित, लेकिन सबके लिए अपरिचित भूमिगत कार्यकर्ता थे- लंबे समय तक भोजपुर में पार्टी के सचिव और हम सबके प्रिय नेता।

आरा शहर में उनसे मेरी मुलाकात 1989 के लोकसभा चुनाव में हुई। एक यामाहा मोटरसाइकिल से वे सदैव चलायमान रहते थे और हर तरह की राजनीतिक या व्यक्तिगत परेशानी का हल हमेशा उनकी उंगलियों के पोरों पर मौजूद रहा करता था। कुछ भी सिखाने के बारे में उनका नजरिया बिल्कुल साफ था- तालाब में उतरे बगैर कोई तैरना नहीं सीख सकता और उथले तालाब में उतरकर वह सिर्फ छप-छप करना सीख सकता है। लिहाजा सिखाने वाले में अगर हिम्मत हो तो वह बंदे को लिए-दिए सीधे नदी की बहती धार में कूद जाए और वहां उसे उसके हाल पर छोड़ दे। गुरू का कौशल सिर्फ इस बात में है कि चेले को मरने न दे और खुद को भी उसकी चपेट में आकर डूबने से बचाता रहे।

अक्टूबर 1989 के लोकसभा चुनाव के बाद फरवरी 1990 के विधानसभा चुनाव में समकालीन जनमत के रिपोर्टर के रूप में मुझे थोड़े-थोड़े दिन दीना जी के साथ रहने का मौका मिला, फिर मई 1991 के लोकसभा चुनाव में। इसके बाद पार्टी के लिए जमीनी काम करना मुझे पटना में रहकर पत्रकारिता करने की तुलना में कहीं बेहतर लगने लगा और एक दिन अपनी लुंगी, कच्छी-बनियान, पैंट-शर्ट, ब्रश और जिभ्भी एक बैग में डालकर उसे कंधे पर लटकाए बतौर पूर्णकालिक कार्यकर्ता मैं आरा में नमूदार हो गया। यहां दीना जी ने अगले तीन दिन मुझे पूरे जिले में टहलाया, खूब खिलाया-पिलाया और फिर बक्सर में चली कई दिन लंबी एक बैठक में फैसला लेकर आरा शहर की जिम्मेदारी सौंप दी।

दीना जी से क्या-क्या कैसे-कैसे सीखने को मिला, वह सब बताने के लिए यह जगह अनुचित और अपर्याप्त है। जिन लोगों से आप बुनियादी बातें सीखते हैं, उनके बारे में यह सब ठीक-ठीक बता भी नहीं सकते। सिद्धांत और विचारधारा में मुझे ज्यादा दिक्कत नहीं होगी और छात्र राजनीति के तजुर्बे के चलते ऊपरी पहलकदमी भी ले सकूंगा, इन दोनों बातों को लेकर दीना जी के मन में मेरे प्रति कोई संशय नहीं था। समस्या एक ही थी कि भोजपुर जैसी तीखी वर्ग संघर्ष वाली जगह में हथियारबंद हमलों से निपटने में हमारी टीम और उसमें भी खासकर मैं सक्षम हो सकेंगे या नहीं। और अगर ऐसा नहीं हुआ तो कहीं आरा शहर में पार्टी के काम को मैं महज एक अकादमिक कसरत तो नहीं बना छोड़ूंगा?

इसके लिए दीना जी ने हमें जो अग्नि दीक्षा दी, उसका नफा-नुकसान, दोनों मुझे जीवन भर भुगतना पड़ेगा। आरा की लीडिंग टीम की एक मीटिंग उन्होंने सिर्फ इस मुद्दे पर ली कि आप लोगों ने अपने पूरे जीवन में अबतक सबसे ज्यादा बहादुरी का जो एक काम किया है, उसका किस्सा पूरे ब्योरे के साथ सुनाएं। ज्यादातर लोगों के पास ऐसा कोई किस्सा था ही नहीं। लेकिन टीम में कुछ लोग सचमुच लड़ने-भिड़ने वाले थे। उनके पास लड़ाई-झगड़ों में पहलकदमी लेने की क्षमता थी, लिहाजा हर संघर्ष के समय उन्हें आपसी सलाह के जरिए रणनीतिक जगहों पर रहने को कहा गया।

किसी प्रतिरोध सभा पर पुलिस या गुंडा गिरोह टूट पड़े तो कुछ लोग खूंटों की तरह डटे रहें, बाकी भी तितर-बितर न हों, उनके इर्द-गिर्द जत्थों में इधर-उधर जमे रहें। जरूरत पड़ने पर पुलिस या गुंडों से भिड़ने में भी न हिचकिचाएं, लेकिन जोर हमेशा इस बात पर रहे कि जल्द से जल्द अपना कार्यक्रम उसी जोश-खरोश के साथ दुबारा कैसे शुरू कर दिया जाए। दीना जी की इन सीखों को हम लोगों ने अपने कार्यक्रमों के विश्लेषण के जरिए धीरे-धीरे अंगीकार किया।

फिर उन्होंने एक दिन बड़े करीने से हमें बम बांधना सिखाया। दोनों तरह के- पलीते वाले भी और पटक कर फोड़े जाने वाले भी। लेकिन यह सिखाने से पहले उन्होंने अपने पिछले तजुर्बों के किस्से- बम बांधने के दौरान मारे गए न जाने कितने कॉमरेडों के वाकये- सुना-सुनाकर हमें इतना डराया कि इस काम में हम कुछ ज्यादा ही सावधानी बरतने लगे। दीना जी इसे बिल्कुल ठीक मानते थे। उनका कहना था कि बहादुरी आप किसी आदमी के खिलाफ दिखा सकते हैं- बारूद और छर्रे आपकी बहादुरी नहीं देखेंगे।

शुरू में इस कवायद का कोई विशेष महत्व मुझे समझ में नहीं आता था और सिर्फ कौतुक या कुतूहल वश मैं इसमें पूरी शिद्दत से जुटा रहता था। लेकिन आपके पास हथियार हो और हथियार बनाने की क्षमता हो तो असंभव मोर्चों को भी संभव बना देने का हौसला किस तरह आपमें पैदा होता है, इस बात का अंदाजा हमें जल्द ही होने लगा। एक बार लोगों में यह हौसला आ जाता है तो उनका डर हमेशा के लिए निकल जाता है और किसी से निहत्थे भिड़ जाने में भी वे नहीं हिचकते।

दो साल के अंदर हालत यह हो गई आरा शहर का कोई मुहल्ला ऐसा नहीं बचा जहां हमारा कोई न कोई सक्रिय कार्यकर्ता न हो। स्कूलों, कॉलेजों, पुस्तकालयों और रंगमंच से लेकर रिक्शे वालों और सफाई कर्मचारियों तक इस सक्रियता की अनगूंज सुनाई पड़ने लगी।

सीधे-शरीफ-मेहनती लोग आपको पढ़ा-लिखा, अच्छा आदमी मानकर आपकी अच्छी-अच्छी बातें सुनते हैं और जब बुरे लोगों से उनका साबका पड़ता है तो अपनी बेचारगी में पटाकर पड़े रह जाते हैं। लेकिन जब उन्हें इस बात का एहसास हो जाता है कि किसी आफत में पड़ने पर पूरे शहर से सौ-पचास लोग दौड़कर हरबे-हथियार समेत उनकी मदद के लिए पहुंच जाएंगे तो उनकी पहलकदमी खुल जाती है और वे समाज के केंद्रक का काम करने लगते हैं।

बहरहाल, कठिन से कठिन संकटों का सामना चुटकुले सुनाने की मुद्रा में कर लेने वाले इन्हीं दीना जी को एक दिन हम लोगों ने घर-गिरस्ती के झंझटों के सामने घुटने टेकते देखा। उनकी पत्नी और बेटा दुर्गापुर में, यानी उनकी ससुराल में रहते थे। दीना जी खुद और उनकी ससुराल के लोग भी बांग्लादेश से विस्थापित होकर इस तरफ आए थे लिहाजा पैतृक संपत्ति के नाम पर उनके पास कानी कौड़ी नहीं थी। गुजारा पत्नी की छोटी सी नौकरी और जब-तब पार्टी की थोड़ी-बहुत मदद से ही चलता था।

बच्चे के बड़े होने के साथ पत्नी का धीरज छूटने लगा। उनके मां-बाप बहुत बूढ़े हो चुके थे और उनकी भी जिम्मेदारियां अपने ऊपर आ गई थीं। नतीजा यह हुआ कि पार्टी का काम धीरे-धीरे दीना जी के लिए दोयम होता चला गया और एक दिन भोजपुर में बारह साल का अपना काम छोड़कर उन्हें दुर्गापुर जाना पड़ा। फिर कई महीने बाद दिसंबर 1992 में पार्टी की कलकत्ता में रैली में उनसे मुलाकात हुई। तब तक जीविका के लिए बीमा एजेंट जैसा कोई काम उन्होंने पकड़ लिया था। उनमें पहली बार दिखी झेंप लेकिन तब भी उनकी जिंदादिली पर भारी नहीं पड़ी थी।

एक शिक्षक के रूप में दीना जी की छवि मेरे मन में शायद कभी न बने लेकिन मेरे जैसे न जाने कितने लोगों को उन्होंने कई ऐसी चीजें सिखाईं, जिनके बारे में सिद्धांततः यही माना जाता है कि उन्हें सिखाया जा ही नहीं सकता। मसलन- साहस, पहलकदमी, अजनबी लोगों के करीब जाकर उन्हें अपना भरोसेमंद बना लेना, संकट का मुकाबला सहजता से करना- भले ही सामान्य स्थितियों में चीख-चिल्लाकर अपना फ्रस्टेशन निकाल देना।

इनमें से कितना उनसे सीख पाया और कितना बाद तक बचाए रख सका, वह अलग बात है, लेकिन कुछ-कुछ समय बाद कोई न कोई ऐसा मौका जरूर आता है जब अपने व्यक्तित्व में दीना जी द्वारा द्वारा ढाले गए आयामों को मैं कुछ ज्यादा ही रंग से प्रस्फुटित होते हुए पाता हूं। कभी लोग इसकी कद्र करते हैं तो कभी चलती गाड़ी में अड़ंगा डालने वाला, हिंसक और बिगड़ैल मान लिया जाता हूं। लेकिन यह सब होने से ही मेरा होना है। यह न होता तो शायद मैं भी मैं न होता।

6 comments:

अभय तिवारी said...

अपनी लम्बाई के बावजूद बोझिल नहीं होने पाया संस्मरण..

Priyankar said...

वस्तुस्थिति को बेहतर और बेहतरीन ढंग से कहना कोई आप से सीखे .

चंद्रभूषण said...

प्यारे भाई मयंक और विप्लव, अलग-अलग समय आप लोगों की टिप्पणियां इस ब्लॉग पर आईं लेकिन आपसे संपर्क करने का प्रयास सफल नहीं हो सका। यदि आप संयोगवश इधर आएं तो अपना फोन-टोन, ईमेल-फीमेल, जो भी हो उसे जरूर छोड़ जाएं ताकि आपसे बात हो सके। मेरा फोन नंबर यदि आपको उपलब्ध न हो तो वह इस प्रकार है- 9811550016

अनिल रघुराज said...

दीना जैसे चरित्रों की झलक भर चमत्कृत कर देती है और फिर यथार्थ उस चमत्कार को जमीन पर उतार लाता है। लेकिन ये सभी संघर्षों के वो योद्धा हैं जिन पर हमेशा सहानुभूति से सोचा जाएगा। चंदू भाई ब्लॉग पर अपना ई-मेल भी छोड़ दें ताकि किसी को भी संपर्क में सहूलियत हो जाए। ऐसा प्रोफाइल में जाकर आराम से किया जा सकता है।

Reyaz-ul-haque said...

बहुते नीक लागल.
आपके दर्शन कब होंगे पटना में. कउनो उमेद?

दिलीप मंडल said...

चंदू जी, आपका अनुभव कीमती है। किताब की शक्ल में दिखे। वरना कई टुच्चे ( गाली है तो मॉडरेट कर दीजिएगा) लोग क्या क्या कूड़ा लिखकर छापते-छपवाते रहते हैं। कार्यकर्ता की डायरी लिखिए, अभी। बाद में पता नहीं क्या क्या हो जाता है। आदमी का भी और सपनों का भी।