Tuesday, July 3, 2007

लट्ठमलट्ठे का सूत-कपास

मोहल्ले पर अविनाश द्वारा चलाई जा रही बहस का जो मतलब मैं अभी तक समझ पाया हूं, उसका एक खाका खींचना चाहता हूं और हिंदी भाषा/साहित्य के लिए इसके नफे-नुकसान का जायजा लेना चाहता हूं। करीब एक साल से साहू-जैन संस्थान से जुड़ी संस्था ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित पत्रिका नया ज्ञानोदय का संपादन संबंधी कार्यभार संभाल रहे रवींद्र कालिया ने लेखकों के परिचय का अपारंपरिक, अनौपचारिक तरीका अपनाया है, जिससे वहां छपने वाले कुछ लेखक आहत हैं। इसके अलावा नई पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी की कोई बहस इसी पत्रिका में मुंबई के आलोचक/ कवि विजय कुमार के एक लेख के मार्फत उनपर चोट करते हुए शुरू की गई है। इस बहस ने एक महाभारत जैसी शक्ल अख्तियार कर ली है, जिसमें कुछ नामचीन और कुछ यशःप्रार्थी साहित्यकार अपना-अपना निशाना साधकर कूद पड़े हैं।

इस क्रम में तीन बहुत अच्छी टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं- एक कर्मेंदु शिशिर की, जिसमें रवींद्र कालिया की संपादकीय नैतिकता को बड़े सधे तेवरों में प्रश्नांकित किया गया है, दूसरी प्रियंकर की, जिसमें अचके में बहस में आ गई विजय कुमार द्वारा प्रशंसित निरंजन श्रोत्रिय की एक कविता को महान बताने के मानदंडों की अच्छी खबर ली गई है, और तीसरी बोधिसत्व की, जिसके सरोकार कुछ सीमित से लगते हैं लेकिन जो हिंदी साहित्य में व्याप्त भयानक बंजरपन और निराधार महत्वाकांक्षा के झोंक में इसके आपराधिक दायरों तक पहुंच जाने की प्रवृत्ति को चिह्नित करती है- बशर्ते इसमें दर्ज तथ्य हकीकत के करीब हों। एक चौथी टिप्पणी इस सिलसिले में, हालांकि इससे कुछ हटकर आज प्रमोद सिंह की भी देखने को मिली है, जिसमें हिंदी साहित्य के सामने कुछ चुनौतियां पेश की गई हैं।

हिंदी साहित्य की स्थिति को लेकर वैसे तो मैं काफी दुखी रहता हूं- और निश्चय ही इसकी एक वजह यह भी है कि इसमें मेरे लिए रत्ती भर भी जगह नहीं निकल पा रही है- लेकिन इसे लेकर रुदन का कोई कारण मुझे इसलिए नहीं समझ में आता कि समय-समय पर इसमें कुछ बड़े रचनाकार, या वे न भी आएं तो रचनाएं जरूर आती रहती हैं। हम दुनिया भर के साहित्यकारों और उनके साहित्य का नाम गिना सकते हैं लेकिन अपनी भाषा में लिखा कुछ अनूठा पढ़ने की बात ही कुछ और है। ऐसी चीजें हाल-फिलहाल आ रही हैं या नहीं, इस बारे में मैं दावे के साथ कुछ नहीं कह सकता क्योंकि मेरे काम का दायरा अलग है और अच्छी रचनाओं तक मेरा हाथ अक्सर जरा देर से पहुंचता है। मुझे लगता है कि ब्लॉग हिंदी की अच्छी रचनाओं को सामने लाने का बढ़िया जरिया बन सकते हैं और अविनाश अगर हिंदी साहित्य की दशा को लेकर वाकई चिंतित हैं तो उन्हें इस दिशा में अपना और हम सभी का ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

लेकिन अविनाश और मोहल्ले को लेकर अपनी इस सदिच्छा पर इधर कभी-कभी कुछ संदेह सा हो रहा है। एक पत्रकार और संपादक के रूप में अविनाश की क्षमता असंदिग्ध है- कम से कम इस मामले में कि वे जिस चीज को चाहते हैं उसे चर्चा में ला देते हैं और चर्चा आगे बढ़े इसके लिए जी-जान लगाकर जुट जाते हैं। लेकिन अविनाश यह भी याद रखें कि हिंदी भाषा और साहित्य के लिए यह कोई अनूठी प्रवृत्ति नहीं है। धीरे-धीरे यहां यह रुझान ही बनता जा रहा है कि किसी संपादक की बात अगर बनती है तो सिर्फ वितंडावाद और जवाबी वितंडावाद से। होना यह चाहिए कि यह चीज किसी असल चीज के समानांतर चले। वह असल चीज रचनात्मकता ही हो सकती है- यानी अच्छी चीजों को पहचानना, उन्हें चर्चा में लाना और बढ़ावा देना, साथ ही बेवजह चर्चा में आ रही बुरी चीजों की असलियत सामने लाना और उन्हें हतोत्साहित करना। क्या यह काम मोहल्ले पर या उसके अगल-बगल फिलहाल जारी साहित्यिक लट्ठमलट्ठे के दौरान हो रहा है?

मुझे लगता है कि यह नहीं हो रहा है। जो लोग इस बहस के किरदार या सूत्रधार के रूप में पीछे से सक्रिय हैं, उनमें से कुछ के साथ मेरा नजदीक का वास्ता है और मैं लगातार उन्हें चेताता रहा हूं कि कुछ छोटे-छोटे फायदों के लिए वे ओवर द बोर्ड जाकर अपना सत्यानाश कर रहे हैं। इसमें दोनों पक्षों के लोग शामिल हैं और भारतीय राजनीति के पक्ष-विपक्ष की तरह इनमें किसी के प्रति भी मेरी कोई आस्था नहीं है। अविनाश, कृपया इन दोनों पक्षों में से किसी एक के साथ खड़े होने की उम्मीद कम से कम मुझसे या मेरे जैसे लोगों से न करें। यदि संभव हो तो इस बहस को किसी सार्थक दिशा में बढ़ाने का प्रयास करें, हालांकि इसके अभी तक के रूप-स्वरूप को देखते हुए इसकी संभावना मुझे कम ही नजर आती है।

2 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

बहुत पहले अकबर इलाहाबादी का एक शेर पढा था :
बूट डासन ने बनाया मैंने एक मजमूं लिखा,
मुल्क में मजमूं न फैला और जूता चल पडा.
ब्लोग की दुनिया में भी इन दिनों यही सब हो रहा है. बातें सही मुद्दों पर उठती हैं, ऐसे मुद्दे जिन पर उठानी चाहिए और देखते ही देखते मुद्दा तो गायब हो जाता हैं, बचती है सिर्फ बहस और वह भी निरर्थक. तर्कों और वैज्ञानिक मान्यताओं से सर्वथा मुक्त. इन स्थितियों के मद्देनजर इस पोस्ट में सिर्फ सही नहीं बहुत जरूरी सवाल उठाए गए हैं. साहित्य वाली राजनीति का ब्लोग्गिंग में घुसना वास्तव में ठीक नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से वही रहा है.

अनूप शुक्ल said...

आपकी बात सही है। मोहल्ले में शुरुआत में कुछ अच्छे लेख छपे थे। उनको पढ़कर लगता था कि यह आम हिंदी ब्लागर के लिये भाषा सीखने का मंच बनेगा। लेकिन जिस तरह के तेवर और भाषा मोहल्ले में आजकल कुछ दिनों से दिखते हैं उससे तो लगता है कि मेरा सोच गलत थी।