Saturday, July 28, 2007

घर बन जाता है

झींसियां काठगोदाम पार करते ही शुरू हो गई थीं लेकिन भीमताल पहुंचते-पहुंचते जो झमाझम बारिश शुरू हुई तो रुकने का कोई सवाल ही नहीं था। पता नहीं किस मिजाज में मेरे दिमाग में बन गई भवाली बाजार की बावड़ी जैसी शक्ल कभी बदलने को ही नहीं आती है। जब भी वहां पहुंचता हूं, या तो बारिश हो रही होती है या बादल बरसकर बस निकले ही होते हैं। पिछली बार ऐसा रात में ग्यारह बजे के आसपास हुआ था, इस बार दिन में ग्यारह बजे हुआ। ड्राइवर गोसाईंजी हल्द्वानी से ही थोड़ी लगाकर चले थे। भवाली पार करते उन्हें पता नहीं कैसे जोक सुनाने का दौरा पड़ गया। सारे पिटे हुए चुटकुले- पीछे से देखा तो लड़की हसीन थी, आगे से देखा तो बिगड़ी मशीन थी टाइप के- लेकिन उनके केंद्र में वे हर बार खुद को रख रहे थे लिहाजा न चाहते हुए भी हंसी आ ही जा रही थी।

रानीखेत हम लोग दिन में करीब दो बजे पहुंचे। लंबा चक्कर मारकर जल निगम के गेस्ट हाउस में अपना सामान रखा। केयरटेकर ने साफ बोल दिया कि यहां खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं है, अलबत्ता आप लोग चाहें तो मैं अपनी रसोई की चाबी आपको दे दूंगा, दूध-पत्ती वगैरह लाकर चाय बना लीजिएगा। तबतक भूख तड़ककर लग गई थी। किराए की टैक्सी छोड़ने से पहले हम लोग वापस रानीखेत शहर पहुंचे और वहां होटल पार्वती इन में खूब दबाकर खाना खाया। अब रात का और अगली सुबह का क्या इंतजाम हो। जमाने बाद ऐसा मौका आया था कि बिना किसी इंतजाम के बिल्कुल अस्थायी ही सही, लेकिन एक छोटी सी गृहस्थी जमानी थी।

हम लोगों ने कहीं से पत्ती, कहीं से चीनी, कहीं से केले, कहीं से बिस्कुट-नमकीन तो कहीं से डबलरोटी-अंडे खरीद लिए और करीब चार किलोमीटर का रास्ता पैदल ही नापने निकल पड़े। ऊपर कुछ घड़ी ठहरकर हमारी हरकतों का जायजा ले रहे बादलों को शायद इसी घड़ी का इंतजार था। आधे किलोमीटर चलकर बाजार पार करने के बाद जैसे ही हम खुले में पहुंचे कि जैसे आसमान ही फट पड़ा। बेटू को तो बारिश में भीगने के मजे आ रहे थे लेकिन इंदु को तबीयत खराब हो जाने का डर सताने लगा। तभी रोडवेज की एक बस आती दिखी और हाथ देकर हम उसमें चढ़ गए।

रानीखेत जल निगम का गेस्ट हाउस खस्ताहाल हो रहा है और इस मामले में वह कतई अपवाद नहीं है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के तमाम छोटे-बड़े कस्बों में अंग्रेजों के जमाने से लेकर सत्तर-अस्सी के दशक तक जो भी नागरिक ढांचा खड़ा किया गया था, वह सब धीरे-धीरे समाप्त होने की ओर अग्रसर है। जिन जगहों से टूरिज्म वगैरह के नाम पर कुछ नकदी मिस सकती है, वहां कुछ गनीमत है। बाकी जगहों के लिए न कोई बजट है न कोई पूछने वाला कि जो भी थोड़े-बहुत पैसे उनकी मद में आते हैं उनका आखिर हो क्या रहा है।

पहाड़ों की मेरी पुरानी यात्राएं पूरी तरह अंतर्यात्रा हुआ करती थीं। किसी एकांत जगह कोना ताक कर बैठ जाना और सामने उतार-चढ़ाव और घुमावों पर हरे-पीले, नारंगी, धूसर और काले-भूरे की अनंत छटाएं देखना। अभी तो हाल यह है कि दिमाग मैदानी कोलाहल से पूरा उबर भी नहीं पाता और वापसी की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। मुझे लगा, इस बार भी ज्यादा एकांत की तलाश बेकार है।

शाम होते-होते मैं बेटू को लिवाकर नीचे की तरफ चल पड़ा कि कहीं से दूध की व्यवस्था हो जाए तो चाय की कुछ संभावना बने। रास्ते में हमें दो-एक दुकानें जरूर मिलीं लेकिन दूध की कोई उम्मीद नहीं बनी। नीचे गीदड़ों का एक जोड़ा दिखा, जिसे हम लोगों से कोई खौफ नहीं था। मैदान होता तो अबतक कुत्तों ने उनकी गंध पाकर आसमान सिर पर उठा लिया होता लेकिन यहां उन्हें तंग करने वाला कोई नहीं था। वापस लौटने तक इंदु ने केयरटेकर से रसोई की चाबी झटक ली थी। यानी यह पक्का हो गया था कि चाय भले न मिले लेकिन ब्रेड तो सिंक ही जाएगी।

दिन डूबने पर दूध के लिए एक कोशिश और की गई। पता चला पड़ोस में एक कोई रामलाल जी हैं जो गाय पालते हैं। वहीं खेल रहे कुछ बच्चों के साथ पानी की बोतल देकर बेटू को रामलाल जी के यहां रवाना किया गया तो एक बोतल दूध उन्होंने मुफ्त ही भेजवा दिया- पैसे लाख कहने पर भी नहीं लिए- चाय के लिए जरा सा दूध ले जा रहे हैं, पैसे किस बात के। फिर क्या था, चाय आई, बहार आई।

बारिश ने इस बार जैसे हमसे दुश्मनी ही ठान रखी थी। बीच-बीच में पंद्रह मिनट, आधा घंटे रुके, फिर तड़ात़ड़ शुरू हो जाए। ऐसे में फोटोग्राफी तो क्या होनी थी, अलबत्ता अगले दिन बूंदों के बीच ही बेहयाई करके थोड़ा टहलना-घूमना जरूर हो गया। हम लोग रानीखेत में एशिया के तीसरे सबसे बड़े गोल्फ कोर्स के इतने करीब थे, इसका कोई अंदाजा ही हमें नहीं था। अगले दिन वहां पहुंचे तो गीदड़ों का वही जोड़ा गोल्फ कोर्स के इर्द-गिर्द चक्कर मार रहा था।

अबतक मौसम थोड़ा खुलने लगा था और रानीखेत में ही कुछ दिन ठहर जाने की तमन्ना जोर मारने लगी थी। लेकिन क्या करते, सारा प्रोग्राम बिल्कुल पैक था। हल्द्वानी, खटीमा और फिर वापस दिल्ली पहुंचने के घंटे-मिनट सफर पर निकलने के पहले से ही तय थे। कोई दो घंटे के लिए किराए पर ली गई टैक्सी से औपचारिक सी साइटसीइंग के बाद हम वापसी की राह पर थे। इस सफर में हमारी उपलब्धि सिफर थी- सिवाय इस एहसास के कि खराब से खराब स्थितियों में भी हम अपने लिए जैसे-तैसे एक छोटा सा घर जोड़ सकते हैं।

2 comments:

अभय तिवारी said...

ऐसे ही निकलते हैं अरमान...

पूर्णिमा वर्मन said...

आपका संस्मरण 'घर बन जाता है' बहुत पसंद आया। अनुमति दें तो इसको अभिव्यक्ति (www.abhivyakti-hindi.org) के 1 अगस्त 2007 के अंक में प्रकाशित करना चाहेंगे। फ़ोटो और परिचय की भी आवश्यकता होगी। आपके उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।