Friday, July 27, 2007

मुशर्रफ साहब की याद में

कई तरह के भय थे जो शिब्ली नेशनल कॉलेज में पढ़ते वक्त हमें इसके माहौल (ऐंबिएंस) से दूर रखते थे। यह मुसलमानों का कॉलेज था। पूरा मैनेजमेंट मुसलमान, प्रिंसिपल मुसलमान, ढाई-तीन सौ शिक्षकों में सिर्फ ढाई-तीन हिंदू बाकी सब मुसलमान, चपरासी सारे के सारे मुसलमान। उनकी भाषा मेरे पल्ले नहीं पड़ती थी, उनके जैसे कपड़े हमारे यहां नहीं पहने जाते थे, उनकी सी दुआ-सलाम हमारे यहां नहीं होती थी, वैसी दाढ़ी नहीं रखी जाती थी.... और सबसे डरावनी बात... शुक्रवार की दोपहर पूरा कॉलेज ही तकरीबन खाली हो जाता था। फिर कोई घंटे भर बाद अचानक सड़कों पर भीड़ कुछ इस तरह दिखाई पड़ने लगती थी जैसे कहीं कुछ हो गया हो।

गांव में छठे-छमासे एकाध मुस्लिम चेहरे देख पाने वाले मेरे जैसे लड़कों के लिए यहां की फिजां में बड़ी अजनबियत भरी थी। भला हो जकरिया साहब का, जो इसी कॉलेज में फिजिक्स पढ़ाते थे। वे छूटकर दारू पीने के लिए बदनाम थे और पता नहीं किस संयोग से मेरे पिता के परिचित निकल गए थे। जकरिया साहब न होते तो इस कॉलेज में ऐडमिशन लेने की शायद मेरी हिम्मत कभी न पड़ती। धीरे-धीरे क्लास में शिक्षकों का आना-जाना शुरू हुआ। अतहर साहब, रहमान साहब, असगर साहब, जफर साहब, अलाउद्दीन साहब, सिद्दीकी साहब, वहाब साहब- ये सारे अनजाने-अपरिचित नाम एक-एक कर जाने-पहचाने से लगने लगे।

एक दिन हल्के भूरे औऱ बादामी के बीच के किसी रंग की शेरवानी पहने हल्की मूंछों और साफ दाढ़ी वाले एक साहब क्लास में तशरीफ लाए। गणित की क्लास थी लेकिन क्या पढ़ाया जाएगा, हमें पता नहीं था। सर आए और ब्लैकबोर्ड पर उन्होंने सधी हुई अंग्रेजी में लिखा- थ्री डाइमेंशनल ज्योमेट्री। यहां तक सब ठीक था। इसके बाद उन्होंने हमारी तरफ मुंह किया, धीरे से शायद अपना नाम बताया और फिर बोले, 'आई विल टीच यू थ्री-डम-डम-डमेंशनल ज्योमेट्री'।

थोड़ी देर तो किसी के कुछ समझ में ही नहीं आया कि उन्होंने कहा क्या और जो कहा वह इस तरह क्यों कहा। लेकिन अगले दो-एक वाक्यों में समझ में आ गया कि सर दरअसल हकले हैं। फिर पीछे की कतारों वाले लड़के मुस्कराए और आगे बैठी तीन लड़कियों ने उनसे संगत मिलाई। इतना सर को नर्वस कर देने के लिए काफी था। उनके साथ हमारी पहली क्लास पूरी नहीं हो पायी।

इन डम-डम सर का नाम क्या था, इसका पता लगाने का कोई जरिया हमारे पास नहीं था। हमें इतना पता था कि मैथ के हेड सिद्दीकी साहब हैं। इन सर की पर्सनाल्टी भी काफी गंभीर, हेड टाइप ही थी लिहाजा हम लोगों ने मान लिया कि ये सिद्दीकी साहब ही होंगे। लेकिन एक दिन किसी ने मैथ डिपार्टमेंट की चिक हटाकर भीतर नजर डाली तो वहां बीच की कुर्सी पर कोई औऱ सज्जन बैठे दिखे। सिद्दीकी साहब अगर ये हैं तो फिर वो कौन हैं?

इस बीच वे सर हमारे बीच थोड़े पॉपुलर होने लगे थे। थ्री डाइमेंशनल ज्योमेट्री वैसे भी गणित की सरल शाखाओं में गिनी जाती है लिहाजा डर जैसी कोई बात नहीं थी। लेकिन पता नहीं कैसे, बिना किसी आग्रह के ही यह लगने लगा था कि बोली से जुड़ी अपनी एक खामी के बावजूद ये सर गणित में हमारी मुश्किलें समझना चाहते हैं। अब भी जब वे ब्लैकबोर्ड की तरफ मुंह किए कोई सवाल कर रहे होते और बीच-बीच में उसके तर्क समझाते हुए अटक जाते तो क्लास में किसी न किसी की हंसी छूट ही जाती थी, लेकिन पूरी क्लास और सर खुद भी इसे सुनकर अनसुनी कर देते थे।

धीरे-धीरे ही पता चला कि सर का नाम मुशर्रफुद्दीन खां है और ये आजमगढ़ जिले में मुसलमान ठाकुरों के धकियल गांव बिंदवल-जैराजपुर के रहने वाले हैं। उन दिनों गणित की अपनी तरंग में मैं संख्याओं के बड़े मूलों पर काम कर रहा था और द्विपद प्रमेय (बायोनॉमियल थ्योरम) के इस्तेमाल के जरिए घनमूल तथा इससे बड़े मूल निकालने का अपनी समझ के मुताबिक एक बिल्कुल नया तरीका विकसित कर चुका था। एक दिन मुशर्रफ सर ने पता नहीं किस मूड में कहा कि जटिल आकृतियों को व्यक्त करने वाले बड़ी घातों के समीकरणों को तोड़कर हमें उनको दो और एक घात के समीकरणों के गुणनफल में बदलने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि किसी चीज का स्क्वेयर रूट तो आसानी से निकाला जा सकता है, लेकिन क्यूबिक या उससे बड़े रूट निकालना हमेशा टेढ़ी खीर होता है।

उनकी इस चुनौती से मैं बिल्कुल उछल पड़ा। हिम्मत करके डिपार्टमेंट रूम में जा पहुंचा और उन्हें खड़े-खड़े ही अपना तरीका समझाने की कोशिश करने लगा। उन्होंने मुझे कुर्सी पर बैठने को कहा और खुद सिगरेट सुलगा ली। बहरहाल, उत्साह में मुझसे कहीं कोई गलती हो गई और उत्तर कुछ का कुछ निकलने लगा। मैंने कहा सर, मैंने इसे बहुत बार निकाला है तो उन्होंने कहा कोई बात नहीं, आराम से करके लाओ। बाहर निकलते-निकलते मुझे गलती समझ में आ गई और वे चाक का डिब्बा लेकर पढ़ाने निकल ही रहे थे कि दुबारा मैंने उन्हें घेर लिया। इस बार कोई गलती नहीं हुई। उन्होंने कहा, तुम स्टेप बाई स्टेप इस मेथड को लिखकर दो और इसे जर्नल में छपने भेजो। मैंने ऐसा किया और उन्होंने अपने इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर पर दो कलर में इसे कंपोज किया। यही छोटा सा पेपर अगले दो-तीन साल चली हमारी दोस्ती का आधार बना।

मुशर्रफ साहब मेरे पूरे छात्र जीवन के सबसे अच्छे शिक्षक बन गए। इससे पहले अपने सारे प्रिय शिक्षकों से किसी न किसी बिंदु पर मेरी लड़ाई हो जाती थी। आठवीं में संस्कृत के हरदेव सिंह माट साब, नवीं में बायलोजी के हरिहर तिवारी जी और ग्यारहवीं में फिजिक्स के विजेंद्र पांडे जी सर के साथ इगो से जुड़े छोटे-छोटे सवालों पर मेरे झगड़े हो गए, जो एक बार हो गए तो फिर हो ही गए। तब से लेकर अबतक उनसे मेरी फिर कभी बातचीत नहीं हुई, जबकि एक छात्र के रूप में ये सारे लोग मुझे बहुत मानते थे। ऐसा कुछ मुशर्रफ साहब के साथ नहीं हुआ तो इसकी अकेली वजह यही थी कि वे वाकई अपने विषय के मास्टर थे। उनका अहं बहुत बड़ा था और इसमें किसी छात्र के साथ छोटे-मोटे टकराव की कोई गुंजाइश नहीं थी।

हमारे कॉलेज में तो क्या उस समय शायद गोरखपुर युनिवर्सिटी में भी ऑनर्स की व्यवस्था नहीं थी। दो साल की अपनी बी.एस-सी. पूरी करने के आखिरी महीनों में मेरे परिवार में एक भारी ट्रेजेडी घटित हो गई थी। तैयारी के नाम पर एक सेशन वहीं आजमगढ़ शहर में रहकर बिताने की मेरी मजबूरी थी। मैं दिनभर कमरा बंद कर पड़ा रहता और शाम को एक कोचिंग में पढ़ाने जाता ताकि कमरे का किराया और खाने के पैसे निकलते रहें। इतवार की शाम मेरा मुशर्रफ साहब के घर जाना तय रहता, जहां देर तक हम लोग हफ्ते भर में जुटाई गई गणित की समस्याएं हल करते रहते।

मुशर्रफ साहब की गली में जाना आसान नहीं था। वे कालीनगंज मोहल्ले में रहते थे जो हमारे शहर का वेश्याओं का मुहल्ला है। डर रहता था कि गांव के किसी आदमी ने उस तरफ जाते देख लिया तो हमारे परिवार की बर्बादी के किस्सों में एक चटपटी चीज और जुड़ जाएगी। लेकिन मुशर्रफ साहब के यहां जाना खुद में एक तीर्थयात्रा जैसा था। वहां गणित के अलावा धर्म और दर्शन पर भी उनसे मेरी लंबी-लंबी बातें होती थीं।

एक बार मैंने उनसे कहा कि सर, मेरा मन होता है विवेकानंद की तरह खांटी मुसलमान बनकर इस्लाम पढ़ा जाए और फिर खांटी ईसाई बनकर क्रिश्चियनिटी के बारे में जानकारी ली जाए। हिंदू तो मैं पहले से हूं ही- इन सबका तुलनात्मक अध्ययन करके धर्म के बारे में कोई राय बनाई जाए। इसपर मुशर्रफ साहब ने मुझे झिड़क दिया। उनकी एक साल की बेटी जेबा वहीं जमीन पर खेल रही थी। उसकी तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा, 'धर्म का मतलब मेरे लिए उतना ही है, जितना जेबा के लिए इस बात का कि उसके आस-पास उसका ख्याल रखने के लिए कोई बैठा है। इससे ज्यादा किसी ईश्वर या धर्म की जरूरत मुझे महसूस नहीं होती। मेरे ख्याल से आप भी जिस धर्म में जितने हैं, उतना काफी है। आप किसी और धर्म के बारे में जानना चाहते हैं तो यह अच्छी बात है लेकिन इसके लिए खांटी मुसलमान या खांटी ईसाई बनने की कोई जरूरत नहीं है।'

मुशर्रफ साहब ने इस्लाम के बारे में पढ़ने के लिए कुछ बुनियादी चीजें मुझे जरूर दीं लेकिन उन बुकलेट्स से कहीं ज्यादा उनकी यह सलाह मेरे लिए काम की साबित हुई। उन्हीं दिनों मैंने भगत सिंह का 'मैं नास्तिक क्यों हूं' पढ़ा और धर्म में कोई गहन रुचि जागती, इसके पहले ही नास्तिक बनने के बीज मुझमें पड़ गए। इसके एक या दो महीने बाद मैं इलाहाबाद गया जहां जल्द ही अपना संपर्क प्रगतिशील छात्र संगठन से होने की बात मैं किसी और प्रकरण में पहले ही लिख चुका हूं। मेरी बड़ी इच्छा थी कि आजमगढ़ लौटकर मुशर्रफ साहब को अपना रास्ता गणित से राजनीति की तरफ मुड़ जाने की बात विस्तार से बताऊं। लेकिन जब इसका मौका मिला तो पता चला कि मुशर्रफ साहब हून इंजीनियरिंग कॉलेज, त्रिपोली में गणित पढ़ाने के लिए तीन साल के वीजा पर लीबिया जा चुके हैं।

इसके बाद उनसे मिलने की मैंने बहुत कोशिश की लेकिन मुलाकात नहीं हुई तो नहीं हुई। उनके किराए के घर में कोई और सज्जन आकर रहने लगे थे और कॉलेज से पता चला कि त्रिपोली में बतौर गणित प्रोफेसर उनका वीजा सालों-साल लगातार बढ़ता जा रहा था। बाद में पटना और दिल्ली जैसे दूर के शहरों से घर वापसी के वक्त मैं अपने गांव सीधे तीर की तरह पहुंचने की कोशिश करने लगा। आजमगढ़ शहर इसमें सिर्फ एक ट्रांजिट प्वाइंट बनकर रह गया। वहां एक-दो दिन ठहरने की नौबत ही एक जमाने तक नहीं आई।

इस क्रम में मुशर्रफ साहब मेरे लिए एक ठोस व्यक्तित्व से गुरू नाम की एक अमूर्त दार्शनिक श्रेणी में तब्दील होते चले गए। आज भी जब किसी अच्छे शिक्षक की छवि मुझे अपने मन में लानी होती है तो आंखें बंद करके कॉ. राम नरेश राम जैसे विचारधारा के एक-दो उस्तादों से गुजरते हुए तलाश के आखिरी बिंदु के रूप में आजमगढ़ के शिब्ली नेशनल कॉलेज में गणित पढ़ाने वाले बिंदवल-जैराजपुर गांव के डॉ. मुशर्रफुद्दीन खां साहब तक ही पहुंच पाता हूं।

4 comments:

इष्ट देव सांकृत्यायन said...

डॉ। मुश मुश मुश मुशर्रफुद्दीन खां साहब के बहाने आपने एक पूरे दौर और दर्शन को अच्छी याद फ़रमाई है चंदू जी. ऐसे गुरू अब कम ही मिलते हैं. मुझे तो गणित-विज्ञान के जो भी गुरू मिले घंटाल ही मिले. दिन-रात ट्यूशन के फेर में पडे रहने वाले और गरीब छात्रों को तरह-तरह से सताने वाले. मैं थोडा उद्दंड था इसलिए वे मुझे तो खैर क्या तंग करते, मुझसे ही तंग रहते थे. पर किसी न किसी तरह बदला लेने की कोशिश जरूर करते थे. बहरहाल, जल्दी ही गुरूपूर्णिमा है, ऐसे गुरुघंटालों को याद न ही किया जाए तो ठीक.

अनिल रघुराज said...

बड़े काम का संस्मरण है। इससे ज्यादा अभी कुछ कहने की स्थिति में नहीं हूं। शिब्ली नेशनल कॉलेज सिर्फ मुसलमानों का कॉलेज है, यह पहली बार पता चला और मुसलमान ठाकुरों की बात भी पहली बार मालूम हुई। वैसे, बीबीसी में रह चुके कुर्बान अली जब हिंदी संडे ऑब्जर्वर में थे, तब उन्होंने बताया था कि उनका पूरा नाम कुर्बान अली सोलंकी है।

azdak said...

मुशर्रफ साहब की शख्‍सीयत को सलाम.. सही संस्‍मरण है.

अनूप शुक्ल said...

बहुत अच्छा लगा यह संस्मरण पढ़कर! धर्म की परिभाषा तो बेहतरीन लगी! :)