बच्चे को पढ़ाना मेरे लिए दिनोंदिन मुश्किल होता जा रहा है। वह छठीं क्लास में है और समझाने पर बातें समझ भी जाता रहा है। लेकिन एक तो कोर्स इतना ज्यादा हो गया है कि वह अपने से कवर नहीं कर पा रहा है, दूसरे स्कूल की तरफ से पढ़ाई में दिलचस्पी पैदा करने की कोई जद्दोजहद नहीं दिखाई पड़ रही है।
पिछले शनिवार को उसकी टीपीएम में टीचर लगातार यही बताती रह गईं कि बहुत ज्यादा शरारती बच्चा है, बच्चों को गालियां देता है, उनका गला पकड़ लेता है, क्लास में हमेशा कुछ न कुछ करता रहता है, वगैरह-वगैरह। इतना डिप्रेस्ड होकर मैं उसके स्कूल से दफ्तर आया कि दो दिन इसी मूड में गुजर गए और इसकी पूर्णाहुति वाइरल फीवर में जाकर हुई।
हम दोनों पति-पत्नी अखबार में काम करने वाले हुए। बच्चे को अपनी पढ़ाई ज्यादातर खुद से ही करनी पड़ती है। ये सारी मजबूरियां स्कूल वालों को बताएं तो इनका उनपर कोई असर ही नहीं पड़ता। उनका एटीट्यूड लगातार अभिभावकों को विक्टिमाइज करने वाला होता है।
बच्चे पर दबाव डालें तो कुछ दिन ठीक चलता है लेकिन फिर उसपर दया आने लगती है। आखिर उससे क्या-क्या छुड़वाया जाए? एक बार टीवी का केबल निकाल दिया तो इतना उदास रहने लगा। कोशिश करके टीवी देखने और पढ़ने के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास बार-बार नाकाम हो जाता है। समझ में नहीं आता, करें तो क्या करें।
मेरा इरादा उसे मार-मारकर आइंस्टाइन बनाने का नहीं है। वह गिटार बजाना सीख रहा है, दस-बीस गाने ठीक-ठाक निकाल लेता है। बीच में छुट्टियों में एक महीने वॉलीबॉल की कोचिंग ली। रेगुलर खेलने में उसकी दिलचस्पी नहीं है लेकिन खेलना अच्छा लगता है। मुझे अच्छा ही लगता अगर वह कोई खेल रेगुलर खेलता। मुझे बुरा लगता है उसका मौका मिलते ही टीवी या कंप्यूटर से चिपक जाना। इसे लेकर इतनी बार इतना गुस्सा किया लेकिन उसकी उम्र के बच्चों का शायद स्वभाव ही यही बन गया है।
ट्यूशन का सुझाव मुझे कभी अच्छा नहीं लगा। मैंने या मेरी पत्नी ने कभी ट्यूशन नहीं पढ़ा। पढ़ाया जरूर है लेकिन या तो मजबूरी में या अपनी रुचि से। लेकिन आजकल ट्यूशन की जो इंडस्ट्री खुल गई है वह तो बारह साल के एक बच्चे को पीसकर रख देगी, इससे फायदा उसे कुछ नहीं मिलेगा। उसके अंदर पढ़ाई के प्रति रुचि बनी रहे और नंबर कम आने से कहीं वह अपनी सोच में फिसड्डी बनकर न रह जाए, फिलहाल उसे लेकर यही मेरी चिंता है।
इस चिंता का दबाव मेरी जो गत बना रहा है उसे मैं जानता हूं लेकिन इसका उसके ऊपर ज्यादा नकारात्मक असर न पड़े, इसके लिए मुझे क्या करना चाहिए, क्या सावधानियां बरतनी चाहिए, इस बारे में कोई मुझे कुछ भी बता सके तो उसका स्वागत है।
11 comments:
चंद्रभूषण जी,
आपकी समस्या पढ़ी। आप सचमुच बहुत परेशान हैं लेकिन अगर मैं ये कहूं कि समस्या को आपने सोच-सोच कर बहुत विशालकाय बना लिया। अन्यथा नहीं लीजिएगा क्योंकि आपकी पीड़ा को आप ही ज्यादा बेहतर महसूस कर रहे होंगे। मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूं लेकिन मेरा बेटा भी छठीं क्लास में पढ़ता है, इसलिए जितना मैंने समस्या को समझा है, उसके आधार पर कुछ सुझाव दे रहा हूं
1. स्कूल में बदतमीजी की बात पर आप स्कूल पर चढ़ जाइए। ये मानकर चलिए कि कोई भी बच्चा बेवजह किसी से मारपीट नहीं करेगा, किसी की गर्दन नहीं पकड़ेगा। फिर क्लास टीचर दूसरे पक्ष की बात क्यों नहीं करती? मैं नहीं जानता कि आपका बेटा किस स्कूल में है लेकिन आमतौर पर अपने पसंदीदा छात्र की गलतियों को टीचर अनदेखा कर सारी गलती दूसरे छात्र पर थोप देते हैं। छठे दर्जे में पढ़ने वाला छात्र ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि अपने शिक्षक से न डरे और अगर ऐसा है तो कमी बच्चे में नहीं, स्कूल और शिक्षक में है। मैं समझ सकता हूं कि अखबार में काम करने की वजह से आप स्कूल जाकर इस बारे में बात करने का समय नहीं निकाल सकते, इसलिए बेहतर है कि पीटीएम की बातों को क्लास रूम में ही छोड़ कर आइए। उसे लेकर ज्यादा परेशान मत होइए।
2. लेकिन एक बात। अगर आपको लगता है कि टीचर की बात में कहीं कोई सच्चाई है तो प्यार से बच्चे को समझाइए। ऐसा बर्ताव न करें कि उसे ऐसा लगे कि उसकी वजह से आप शर्मिन्दा हैं। आप बताएं कि ऐसी गलतियां हर बच्चे से हो जाती है लेकिन परेशानी की कोई बात नहीं आइन्दा ऐसा न करना। अगर बच्चे को इस बात का एहसास होगा कि उसके मां-बाप उस पर गर्व करते हैं, तो ये गर्व बोध उसे बिगड़ने से बचाएगा।
3. आपका बेटा शरारती है। बहुत अच्छी बात है। एक अच्छे डॉक्टर ने मुझसे कहा था कि जितनी ज्यादा शरारत, उनता ज्यादा एनर्जी लेवल।
4.बच्चे पर दबाव मत डालिए। छठे दर्जे में अगर वो घर में तीन से साढ़े तीन घंटे भी पढ़े तो मुझे लगता है वो अच्छा करेगा। मैंने अपने बेटे के लिए यही समय तय किया है। वो भी ऐसा किया है कि अपनी रूटिन उसने खुद बनाई है। मैंने तय नहीं किया है कि उसे कितने बजे से कितने बजे तक पढ़ना है। मैंने उससे केवल ये कहा कि तुम्हें घर में तीन से साढ़े तीन घंटे पढ़ना है, अपनी सुविधा से रूटिन बनाओ। उसने ऐसा किया और उस पर अमल कर रहा है। जिस दिन नहीं कर पाता है, खुद ही शर्मिन्दा हो जाता है क्योंकि रूटिन उसकी खुद की बनाई हुई है। हमने उस पर कुछ नहीं थोपा है। ऐसे मौके हम उससे ये कहते हैं कि कोई बात नहीं, आगे मैनेज कर लेना। वो करता है।
4. बच्चा अगर गाली दे रहा है तो आपको पता करना चाहिए कि संगत कैसा पा रहा है हो। आप मियां-बीवी जब दफ्तर चले जाते हैं तो फिर वो किसके पास रहता है, किनके साथ समय बिताता है--ये जानना बहुत अहम है। इस पर तो आपको ध्यान रखना ही पड़ेगा। मुझे नहीं पता कि जब आप लोग दफ्तर में रहते हैं तो घर पर कौन रहता है। बहुत ज्यादा अकेलापन भी बच्चों के लिए अच्छा नहीं है।
5.मैं और मेरी पत्नी बच्चे को खुद पढ़ाते हैं। इसलिए ट्यूशन में नहीं डाला है। जाहिर है आप या भाभी जी, बच्चे को पढ़ाने का समय नहीं निकाल पाते होंगे क्योंकि सुबह वो स्कूल में रहता होगा और शाम को आपलोग दफ्तर में। ऐसे में ट्यूशन का विकल्प बुरा नहीं है। हां, ट्यूटर अच्छा होना चाहिए। मेरा अनुभव है कि छात्र ही अच्छे ट्यूटर होते हैं। अगर सीनियर क्लास या इंजीनियरिंग वगैरह पढ़ रहा कोई लड़का या लड़की मिल जाय तो बेहतर होगा और अगर वो घर आकर पढ़ा दें तो इससे बेहतर चीज कुछ नहीं हो सकती। पता कीजिए, बच्चा स्कूल की पढ़ाई से संतुष्ट है या उसे मदद की जरूरत है। तय आपको करना है।
6.आज के बच्चे इंटरनेट पर बैठेंगे ही और गेम खेलेंगे ही। रोकिए मत। समय निर्धारित कर दीजिए। आधा घंटा या एक घंटा। साथ ही बाहर जाकर खेलने के लिए जरूर प्रेरित कीजिए। ये बहुत जरूरी है।
7. मैंने अपने बच्चे का ब्लॉग भी बना दिया है। (www.sswapnil.blogspot.com) केवल रविवार को एक ब्लॉग पर बैठने की इजाजत है। तो पूरे हफ्ता वो इस बात पर भी ध्यान लगाता है कि क्या लिखे, क्या इकठ्ठा करे। क्रिएटिविटी बढ़ रही है।
8. चिंता मत कीजिए। बच्चे को फ्री कीजिए। उसे अपनी जिंदगी जीने दीजिए। मुझे पक्का विश्वास है कि आपका बच्चा अच्छा करेगा। छुट्टी के दिन घर पर टेस्ट वैगरह लिया कीजिए। औचक टेस्ट। पहले से मत बताइए कि किस विषय पर लेंगे लेकिन उसे बताइए कि औचक टेस्ट होगा। हैरी पॉटर की नई किताब खरीद कर दिया कि नहीं? अगर नहीं दिया तो तनख्वाह मिलते ही खरीद कर दीजिए। कोर्स के अलावा बाहर का जितना पढ़ेगा, उतना बढ़ेगा।
मेरा ख़्याल है सत्येंद्र ठीक कह रहे हैं. थोडा उस पर अमल करके देखिए.
रही बात गाली देने की तो वो पूरी दुनिया इमं आम फ़हम है. ऐसा आदमी तो दूर स्त्री मिलनी भी मुश्किल है जो किसी न किसी तरह गाली न देती हो. इस तिल को कृपया ताड़ न बनाएं. आज नहीं तो कल उसे गाली देना सीखना ही है. उसे गाली मुक्त करने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि उसकी गालियों पर ध्यान न दें.
मैं तो फइनमेन का कायल हूं - खेलो, कूदो और सीखो ... time to think?
सतेन्द्र जी काफी कुछ आपकी समस्या सुलझाने मे सफल हुए हैं। ११ साल का बच्चा और क्या करेगा ? गिटार से दस बीस गाने निकाल लेता है , ये तो बहुत बड़ी उपलब्धि है। स्कूल मे कम से कम कुछ करता तो है , भले बच्चों की गर्दन पकड़ता हो। इसका मतलब है कि उसके अन्दर कुछ ऐसा चल रहा है जो बाहर निकलना चाहता है। इस कुछ को पकड़ना है। आप अगर उसे टी वी देखने की पूरी छूट दे दें तो मैं शर्त लगा सकता हूँ कि ३ महीने मे वो हम लोगो से ज्यादा तेज होगा। वो जो कुछ भी करना चाहता है , उसे उसके चरम तक करने दें। चिन्ता की कोई बात नही। बच्चा खिल रहा है।
मुझे लगता है कि सत्येन्द्र भाई के सुझाव कारगर सिद्ध हो सकते हैं मगर उन्हें किसी न किसी रुप में आप अमल कर ही रहे होंगे.
कई बार व्यस्त माँ बाप के बच्चों का ज्यादा सुचारु विकास अच्छे बोर्डिंग स्कूलों में हो जाता है. थोड़ा कुछ संशय बिगड़ जाने का भी लोग रखते हैं मगर वो तो घर रहते भी उनकी बाहरी संगत से रहता है.
मैने कई बच्चों को बोर्डिंग स्कूलों में बहुत ही बढ़िया करते देखा है.
शुभकामनायें कि आपकी समस्या का हल निकले और बच्चे का भविष्य उज्जवल हो.
सतेन्द्र जी काफी कुछ आपकी समस्या सुलझाने मे सफल हुए हैं। लेकिन आप दोनो को समय जरुर देना चहिए बच्चे को,मेरे दो बच्चे हे दोनो को दोस्त बना कर सब मुश्किल हल कर लेता हु,कभी किसी बात के लिए दवाव नही डाला,
चंद्रभूषणजी
कंप्यूटर बहुत बुरा नहीं है, अगर सलीके से इस्तेमाल हो। अब लगभग सारे विषयों को बेहतर तरीके से सिखाने वाली सीडी बाजार में हैं। उन्हे लें और बच्चे को कंप्यूटर पर समय बिताने दें। मेरे अनुभव में यह बात आयी है कि सीडी बनाने वाले ज्यादा समझदारी से काम करते हैं, बनिस्पत मास्टरों या मास्टरनियों के।
ज्यादा बात करना, और इवन गालियां देना-बुरा लक्षण नहीं है। इस तरह के बच्चों के पास कहने के लिए बहुत कुछ होता है। आप या आपकी पत्नी रोज सिर्फ आधा घंटा उसकी सुनिये, सिर्फ सुनिये। उसका ब्लाग बनाने का आइडिया भी अच्छा है। डिप्रेशन में ना आइये, जिदगी पीटीएम से परे भी है।
टीवी से दूर करने का एक ही तरीका है, या तो पार्क में आउटिंग या किताबें रोचक किताबें। वो भी इफरात में हैं, नेशनल बुक ट्रस्ट और चिल्ड्रन बुक ट्रस्ट ने वाकई सस्ती और बढ़िया किताबें छापी हैं।
सत्येंद्र जी, आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। मेरा मकसद इस मसले पर शेयरिंग करने का था, जो हो रही है। स्कूल अपनी कमजोरियां छिपाने के लिए पैरेंट्स के प्रति ज्यादा अफेंसिव हो जाते हैं। इसका कोई रास्ता निकालना होगा। घर पर कोई न कोई हेल्पिंग हैंड रहता ही है, प्रायः एजेंसी से लाई हुई कोई मेड या लड़का। उनके प्रति कोई शिकायत रखने से भी क्या फायदा, उनमें ज्यादा सुधार तो होना नहीं है। मेरी स्ट्रेटेजी उनके बारे में मात्र इतनी रहती है कि उन्हें मेरे घर में भरसक मानवीय गरिमा प्राप्त हो, फिर मेरे पीठ पीछे वे घर में कुछ भी करें, उनपर भरोसा करने के सिवा मेरे पास चारा ही क्या है। दरअसल छठीं में कोर्स अचानक बढ़ गया है और बच्चे को इसके साथ ऐडजस्ट करने में अभी थोड़ी मुश्किल आ रही है। एक्स्ट्रा-करीकुलर रीडिंग के मामले में तो वह बेजोड़ है। मुश्किल रुटीन की करीकुलर चीजों में है।
उन्मुक्त जी, इसी बहाने फाइनमैन पर मुहैया कराई गई आपकी चीजें पढ़ गया। बहुत अच्छा लगा। पता नहीं क्या बात है, फाइनमैन की लिखी या उनपर लिखी किताबें बहुत मंहगी मिलती हैं। एक बार पुस्तक मेले में खरीदने गया तो उनकी एक पतली सी किताब साढ़े नौ सौ से कम में देने को तैयार ही नहीं हुआ। ऐसा पश्चिम के बाकी वैज्ञानिक चिंतकों के साथ नहीं है और उनकी चुराकर छापी गई चीजें सस्ती-सुबिस्ती कीमतों पर तमाम चिरकुट दुकानों पर मिल जाया करती हैं। क्या आप आम हिंदुस्तानियों के प्रति फाइनमैन की या उन्हें छापने वालों की इस नाइंसाफी की वजह ढूंढ सकते हैं?
आलोक जी, कंप्यूटर पर लगातार गेम खेलने की मुश्किल है। तीसरी-चौथी में एक-दो बार स्टडी सीडी इस्तेमाल की थी लेकिन उनके उत्तरों में मुझे कुछ बड़ी गलतियां नजर आईं और उन्हें बेकार मानकर मैंने छोड़ दिया था। फिर कोशिश करते हैं।
इष्टदेव जी, समीर जी, राहुल जी और राज जी, आप सभी की सलाहों और बातचीत के लिए आपको बहुत-बहुत धन्यवाद। ऐसे मामलों पर बीच-बीच में बातचीत बहुत जरूरी है और एक-दूसरे के अनुभव हम सभी के काफी काम आ सकते हैं।
चंदूभाई! यहां मैं सलाह देने हाज़िर नहीं हुआ हूं जैसा कि आपने गुहार लगाई है. इसे बस आपसदारी के जेश्चर समझिये. मैं सत्येंद्रजी की तरह ये नहीं कह सकता कि मुझे मालूम नहीं आपका बच्चा किस स्कूल में पढता है.
आप जानते हैं कि आज स्कूल में स्कॉलर बैजेज़ बांटे जा रहे हैं और हमारे बच्चे घर पर बैठे हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे बच्चे स्कॉलर बैज ले रहे होते तो हमें बुरा लगता लेकिन पिछले छ: बरसों में स्कूल ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है जिससे स्कूल को इस क़ाबिल भी माना जाये कि वो बच्चों की विशेषताएं समझ सकेगा और उन्हें उनके मुताबिक़ सम्मानित कर सकेगा या फिर सही ढंग से दंडित भी कर सकेगा. बच्चे इन स्कूलों में दंडित या सम्मानित इस तरह किये जाते हैं कि उन्हें कभी यह एहसास नहीं हो पाता कि उन्होंने क्या बुरा या अच्छा किया है. कुल मसला यही होकर रह जाता है कि अगर आप मैम को खुश कर पाये तो अच्छे वरना बुरे. ध्यान दीजिये कि "मैम को खुश कर पाये."
बच्चे के मौजूदा स्कूली जीवन को लेकर मेरा यही प्रयास रहता है कि पढाई और जिग्यासा के प्रति उसके मन में गहरा नकार विकसित न होने लगे. यहां कई ऐसी बातें हैं जो मैं आपके साथ शेयर करना चाहता हूं क्योंकि हमारे बच्चे एक ही स्कूल एक ही कक्षा और एक ही सेक्शन में पढते हैं. लेकिन मेरी टाइपिंग स्पीड और माध्यम की सीमाएं इसमें रुकावट हैं.
स्कूल से किसी भी मुद्दे पर संवाद करना असंभव होता जा रहा है. हर सवाल की तान यहीं टूटती है कि अगर आपको स्कूल पसंद नहीं है तो आप बच्चे को हटा लीजिये और कहीं दूसरी जगह एड्मिशन दिलाइये. अभी पिछ्ले हफ़्ते की बात बताता हूं मैं ट्रांस्पोर्ट इंचार्ज से सिर्फ ये पूछने गया था कि स्कूल बस का समय बदल कर 6.36 क्यों कर दिया गया है जब्कि अब तक बस 7.12 पर आया करती थी. आप जानते हैं कि मैं स्कूल से एक किलोमीटर और सौ मीट्रर की दूरी पर रहता हूं और अगर बच्चों को खुद छोडने जाऊं तो मुझे तीन मिनट लगते हैं. ऐसे में 7:30 पर शुरू होने वाले स्कूल के लिये महज़ इतनी दूरी से बच्चा 6:36 पर बस में बैठा दिया जाये और बस गली-गली घूमती हुई लगभग एक घंटे बाद स्कूल पहुंचे ये मुझे जम नहीं रहा था. इसी लिये मैं ट्रांस्पोर्ट में बात करने गया था. उन्होंने मुझसे साफ़ कहा कि हमें दूसरे बच्चे भी लेने होते हैं और आपके अनुसार हम बस का समय नहीं बदल सकते.आपको प्रॉब्लम है तो बस छुडवा दीजिये. अब बच्चे बढ गये हैं. अगले दिन मैंने देखा कि वही ट्रांस्पोर्ट प्रभारी, जो कि स्कूल में अनुशासन प्रभारी भी हैं एक रिक्शे वाले से इसलिये उलझ रहे थे कि स्कूल की एक मैम को गेट पर उतारने के बाद वह वहां से हटने में फुर्ती नहीं दिखा रहा था. उन्होंने रिक्शे का हैंडिल पकडा और दूसरी तरफ भागने लगे, रिक्शेवाले ने उन्हें दौडाया और चार फ़ैट मारे. उलझा-उलझी बढ गयी और स्कूल गार्ड वग़ैरह जुट गये और रिक्शेवाले को पीटा. यह नज़ारा स्कूल पहुंचने वाले हर उस बच्चे ने और अभिभावक टीचर ने देखा जो जल्दी जल्दी बच्चों को पहुंचा और पहुंच रहे थे.
स्कूल इस क़ाबिल नहीं हैं जो बच्चों को समझ या समझा सकें. कृपया बच्चे के हमराह बनिये, वह स्कूल से बहुत कष्ट पाता है उसकी मुश्किलें घर में मत बढाइये. मेरी बेटी कहती है कि उसे पढाकू नहीं बनना है क्योंकि उसकी क्लास के पढाकू बच्चों के मुंह पढ-पढ्कर टेढे हो गये हैं.
काश कि मैं आपसे कुछ और भी कह पाता.
इरफान जी, पैरेंट्स एसोसिएशन बनाने के बारे में गंभीरता से विचार कर रहा हूं। एक लड़की मेरी सोसाइटी में है, पुण्य प्रसून वाजपेयी का बेटा भी इसी स्कूल में है। कुछ और लोगों का नंबर जुटाया जाए और अगले शनिवार तक आठ-दस लोगों को बिठाकर प्रिलिमनरी लेवल की एक एसोसिएशन गठित कर दी जाए। बिना दबाव के इन स्कूलों की गुंडई से नहीं निपटा जा सकता।
आज की आलोचना
बोधिसत्व
यदि मैं कवि हूँ तो मैं समझता हूँ कि मेरा काम कविता लिखना और उसे प्रकाशित करना है। उस कविता का महत्व आकना आलोचकों का काम है। यह आलोचक पर ही निर्भर करेगा कि वह किस कवि या कविता का मूल्यांकन करे। कविता की आंतरिक सचाइयों की परख करना आलोचक की अपनी अंतर्दृष्टि पर निर्भर करता है । बात को अगर मैं सीधे कहूँ तो किसी भी कविता को परखने के लिए आलोचक के पास एक कसौटी होनी ही चाहिए। बिना कसौटी के वह कविता को जिबह तो कर सकता है मूल्यांकन नहीं कर पाएगा।
एक कवि होने के नाते इसीलिए मेरी अपेक्षाएं आलेचना से बढ़ जाती हैं। पर यदि पिछली पीढ़ी यानी नामवर जी परमानन्द जी या नन्दकिशोर नवल और मैनेजर पांडे जैसे वरिष्ठ आलोचकों की आलोचना को छोड़ दें तो आज की आलोचना किसी नतीजे पर पहुँचती नहीं दिखती। क्योंकि आज आलोचना का बड़ा भाग समीक्षा रूप में सामने आ रहा है । एक ऐसी समीक्षा जिसमें कविता संग्रह में संकलित कविताओं की संख्या, उनके नामोल्लेख और कविता के नमूने सामने रख कर आलोचक अपने दायित्व की इतिश्री मान लेता है। कुल मिलाकर आलोचना का मामला तुम भी खुश और मैं भी गदगद से आगे नहीं बढ़ रहा है ।
आज की आलोचना कुछ पदों के कीच में धस कर रह गई हैं । कुछ शव्द हैं जो हर समीक्षा या आलोचना में मिलेंगे ही । जिनमें प्रमुख शव्द हैं हैं जीवन दर्शन, सोंदर्यबोध, जीवन की पकड़, गहराई, शब्द-संयोजन, मार्मिकता, लगाव, ठहराव, व्यापकता, अंतर्दृष्टि, सरोकार, अपना मुहावरा, काव्यार्थ की संभावना, हड़बड़ी, विकलता, मौलिकता और ताजगी। यही पद हैं जिनसे मुक्तिबोध का भी मूल्यांकन किया जा रहा है और एक दम ताजे कवियों का भी।
आज की आलोचना को लेकर एक रोचक बात यह है कि किसी भी कवि को आज का खारिज नहीं किया जाता । शायद कटु-तिक्त कहने और क्या काम का है और क्या बेकाम का है इसे चिह्नित करने वाला विवेक आलोचकों में नहीं रह गया है। हर कवि की हर पंक्ति स्वीकार है। यह किस प्रकार की आलोचना का युग है। सब सुंदर है सब धरोहर है।
यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं कि आज औसत दर्जे का साहित्य ही लिखा जा रहा है। लेकिन उस साहित्य में क्या कुछ गाद-कीच भी है कि सब सत्व ही सत्व है। भाई जब सोना का भी भस्म तैयार किया जाता है तो भी बहुत कुछ खोटा निकलता है। आज कविता से खोटा कौन निकालेगा। कौन आलोचक बिना पूर्वाग्रह के यह कहेगा कि यह कविता औसत है और यह काम की है। मेरा मानना है कि कविता अच्छी या बुरी नहीं काम की अथवा बेकाम की होती है।
आप किसी ऐसी आलोचना की किताब का नाम लें जिसमें पिछले दस या बीस बरस की कविता या साहित्य का किसी भी तरह से छान-बीन की गई हो। पिछला बीस साल भारत के इतिहास में एक बड़े उलट-फेर का काल रहा है। अयोध्या में बाबरी मस्जिद के टूटने से लेकर केंद्र में एक संप्रदायवादी दल की सरकार के बनने, गुजरात के सेरकारी दंगों से मुखातिब होना पड़ा है देश को। और भी कई सामाजिक राजनैतिक बदलाव हुए हैं जिन्हे हिंदी के कवियों लेखकों ने अपने लेखन में पूरी मुस्तैदी के साथ दर्ज किया है। सवाल यह उठता है कि क्या आलोचना ने उस दस्तावेज के मूल्यांकन का काम किया। क्या सांप्रदायिकता और फासीवाद के खिलाफ लिखी गई सारी कविताएं काम की हैं या उनमें भी कुछ भरती का है। यहाँ भी आप को निराश होना पड़ेगा। क्योंकि आज के अधिकतर आलोचक कवि केंद्रित आलोचना के पक्षधर हैं कविता या काव्य-बोध केंद्रित नहीं।
एक और बात। छठें और सातवें दशक तक के कवि कविता की जाँच-पड़ताल करते रहते थे। वो कवि किसी वाद या धारा का हो संवाद करता था। अज्ञेय, रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकान्त वर्मा हों या मुक्तिबोध, शमशेर, नेमिचंद जैन, मलयज या सोमदत्त सबने कविता के विमर्श में अपने को शामिल किया। आज भी कुंवर नारायण और अशोक वाजपेयी, विष्णु खरे, अरुणकमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी जैसे कवि कविता के अंतर्साक्ष्यों से समाज की संरचना का लोखा जोखा करते दिखते हैं। लेकिन आज का युवा कवि परमुखापेक्षी है, पंगु है या कुंद है। वह सिर्फ कविता लिखना जानता है उसके निहितार्थ की उसे भी कोई सूचना नहीं है। वह एक ऐसे आलोचक की राह देख रहा है जो उसकी कविता का सच्चा अर्थ उजागर करे। उसे कवि की मान्यता दिलाए।
लेकिन आज का आलोचक तो कवि से भी अधिक भ्रमित और आह्लादित करने वाली आलोचना के जंजाल में मगन है, उसे खुद ही किसी चमत्कार का इंतजार है।
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