मित्रो, वाइरल फीवर ने जकड़ रखा था, आज ही उठकर दफ्तर पहुंचा हूं। असीमा भट्ट के दारुण दांपत्त्य की कथा कथादेश, कई दूसरे हिंदी प्रकाशनों और रियाज उल हक के ब्लॉग पर प्रकाशित होकर समाज में जबर्दस्त चर्चा में है। उस हिसाब से ब्लॉग पर ज्यादा कुछ नहीं हुआ है। अभय जी और नीलिमा जी ने कुछ पहलकदमी ली है लेकिन ज्यादातर लोग असमंजस में हैं।
असमंजस की वजहें हैं। सूचनाएं अभी इकतरफा हैं। दूसरा पक्ष भले ही असीमा को 'धमकियां देने' जैसे गर्हित कर्म कर रहा हो, लेकिन कम से कम किसी दर्जशुदा अभिव्यक्ति की दृष्टि से उसे मौन ही कहा जाएगा। यह एक पति-पत्नी का मामला है और शालीनता हमसे यह मांग करती है कि इसपर हम अपना गुस्सा भले जताएं लेकिन फैसला दोनों पक्षों को सुनने के बाद ही दें। सबसे बढ़कर इस मामले का केंद्रीय चरित्र एक अतिसंवेदनशील रेडिकल वाम कवि है, जिसकी अपनी एक लार्जर दैन लाइफ छवि है- सो क्या कहें, कैसे कहें!
इससे पहले ठीक ऐसा ही मामला नामदेव ढासाल का उछला था जिन्हें मराठी ही नहीं, पूरे भारत के रेडिकल दलित आंदोलन और दलित साहित्य के भीष्म पितामह जैसा दर्जा हासिल है। इससे भी पहले ब.व. कारंत और विभा कारंत का प्रकरण सामने आया था, जिसमें संवेदनशील कलाकार में लोगों को अचानक घरेलू कसाई की सी छवि नजर आने लगी थी। फिल्मी दुनिया के दांपत्त्य में तो ऐसे हजारों मामले होते होंगे लेकिन ज्यादा पैसे और ताकत वाला उपादान होने के चलते फिल्मी झगड़े सतह पर नहीं आने पाते और आ भी जाएं लोग उन्हें उतनी गंभीरता से नहीं लेते।
पति-पत्नी का रिश्ता भारतीय समाज में पुरुष की तरफ बहुत ज्यादा झुका हुआ है और जैसे-जैसे यहां पैसा-पॉवर बढ़ रहा है वैसे-वैसे यह लोकतांत्रिक होने के बजाय और भी ज्यादा पुरुष-वर्चस्व से ग्रस्त होता जा रहा है। समाज में मूल्यों को लेकर कोई बहस नहीं रह गई है और कभी-कदा यह चलती भी है तो इसका उद्देश्य प्रदर्शनात्मक होता है। यानी इसे दिखाकर कुछ पैसे कमा लेने का- जोकि अब भारतीय समाज में मूल्य का एकमात्र अर्थ और अर्थ का एकमात्र मूल्य रह गया है। ऐसे में किस दंपती की हांड़ी में क्या खिचड़ी पक रही है, इस बारे में सारे अनुमान कभी भी हांड़ी फूट जाने की आशंका के साथ जुड़ गए हैं।
क्रांति भट्ट और आलोक धन्वा की शादी के वक्त मैं पटना में नहीं था लेकिन अलग-अलग इन दोनों व्यक्तित्वों के बारे में पटना में रहते थोड़ी-बहुत जानकारी मुझे थी। जून 1988 में मैं पटना पहुंचा था और इसके कुछ ही महीने बाद हंस में ताजा-ताजा छपी भागी हुई लड़कियां समेत उनकी चार कविताओं को पढ़कर उनका दीवाना हो गया था।
रामजी भाई और महेश्वरजी के साथ मेरी भागी हुई लड़कियां की एक पंक्ति 'जहां प्रणय खुद में पूरा का पूरा एक काम होगा' को लेकर बड़ी जबर्दस्त बहस हुई थी। मेरा कहना था कि मनुष्य के काम्य समाज का यह एक अच्छा चित्रांकन है, जबकि मेरे इन वरिष्ठों का मानना था कि प्रणय जहां खुद में पूरा का पूरा एक काम होगा वह एक जड़ समाज ही होगा और एक काम्य प्रणय वही हो सकता है जो एक बेहतर समाज की रचना के स्वप्न से जुड़ा हो। खूब छूटकर बहस हुई, और जैसा तब की मेरी ज्यादातर बहसों के साथ होता था, अंत में मैं रुआंसा हो गया और मन ही मन रामजी राय और महेश्वर को जड़सूत्री आदि कम्युनिस्ट गालियों से नवाजने लगा। पता नहीं इस बहस का कोई मतलब भी था या नहीं क्योंकि अब इसका कोई सिर-पैर मेरी समझ में नहीं आता।
इस बहस के कुछ समय बाद जब हम लोग आलोक धन्वा से मिलने उनके फ्लैट पर गए तो धन्य-धन्य का भाव थोड़ा कम हो गया। कम्युनिस्ट जार्गन से जुड़ी तमाम जानकारियों के बावजूद आलोक धन्वा का बहस-मुबाहिसे से कोई लेना-देना नहीं है। उनसे बात करने का मतलब है वे बोलते रहें और आप सुनते रहें और वे अंत में कहें कि बहुत अच्छी बातचीत हुई और आप जवाब में कहें कि हां, इस जीवन में इस बातचीत को आप कभी भूल नहीं पाएंगे। इससे भी ज्यादा खुजली पैदा करने वाली चीज थी विवाह को लेकर उनकी प्रचंड इच्छा, जिसका उनकी क्रांतिकारी गुरुगंभीरता के साथ कोई तुक नहीं बनता था। इस सिलसिले में रामजी भाई ने अपनी एक साली के साथ शायद उनकी कुछ बातचीत भी चलाई थी, जो पता नहीं किस वजह से सिरे नहीं चढ़ सकी।
बाद में जब जनमत निकालने मैं भोजपुर से दिल्ली आया तो पता चला कि आलोक धन्वा ने क्रांति भट्ट से शादी कर ली। मुझे याद नहीं आता कि पटना में किसी रंगमंच पर मैंने क्रांति भट्ट को अभिनय करते देखा था या नहीं, लेकिन आईपीएफ दफ्तर में अक्सर नजर आने वाले भट्ट जी की प्रतिभाशाली बेटी के रूप में उनकी एक धुंधली सी शक्ल मेरे दिमाग में जरूर थी। भट्ट जी की छवि हमारी नजर में जरा हल्के आदमी की थी क्योंकि वे किसी के भी बारे में कुछ भी बोल देते थे- जैसे शाहिद अख्तर या इरफान के बारे में यह कि यही हमारे सैयद शहाबुद्दीन हैं।
सचाई चाहे जो भी हो लेकिन हमारे बीच चर्चा यही थी कि आलोक धन्वा किसी मंच पर कविता पढ़ने के बाद अपना मेलोड्रामा फैलाए हुए थे- मैं अस्वस्थ हूं, मेरी देखरेख कौन करेगा, इस आयु में मुझसे विवाह कौन करेगा, कि तभी भट्ट जी की बेटी ऑडिएंस के बीच से खड़ी हुई और बोली- मैं करूंगी। उसका ऐसा करना हमारी नजर में झट से चंग पर चढ़ जाने वाली भट्ट जी की पारंपरिक छवि से बिल्कुल मेल खाता था, लिहाजा इस कहानी को क्रॉस करने की जरूरत हमें कभी महसूस नहीं हुई।
अब असीमा की कहानी से पता चल रहा है कि बाकायदा एक योजना बनाकर आलोक धन्वा ने उन्हें शादी के बंधन में बांधा। सचाई क्या है, इसका पता शायद बाद में चले, या कभी न चले, लेकिन इतना तो तय है कि शादी-ब्याह जैसे मामलों में किसी भी बिंदु पर यदि आप खुद को वस्तु बन जाने देते हैं- यानी अपनी होनी का फैसला आप किसी और के हाथ में सौंप देते हैं- फिर चाहे वे आपके माता-पिता हों, या आपका प्रेमी या कोई प्रिंस चार्मिंग या धीरोदात्त नायक, या कोई क्रांतिकारी योद्धा या नए युग की आवाज के रूप में प्रतिष्ठित कोई दैवी प्रतिभा- तो फिर आगे भी वस्तु बनकर जीना ही आपकी नियति होगी। भले ही चमचे पत्रकारों द्वारा वर्णित असीम-अलौकिक प्रेम का महिमामंडित मुलम्मा आप पर अनंत काल तक चढ़ा रहे, लेकिन एक खुदमुख्तार व्यक्ति बनकर जीने का गौरव आप बहुत भारी कीमत चुकाए बिना फिर कभी नहीं हासिल कर सकेंगे/सकेंगी।
क्रांति भट्ट उर्फ असीमा भट्ट से यह गलती मूर्खता/भोलेपन में हुई या किसी साजिश के फेर में फंसकर वे इसकी शिकार हो गईं, लेकिन इतना तो तय है कि शादी करने का फैसला उनके गले पर चाकू या माथे पर कट्टा रखकर नहीं कराया गया था। अंततः यह उनका अपना फैसला था, और अपनी कथा के दौरान जब वे इसे ओन नहीं करती सी नजर आती हैं तो बड़ा अजीब, लिजलिजा सा लगता है।
इस कहानी में सिर्फ एक बात और मुझे अजीब लगी- आलोक धन्वा की वरिष्ठ प्रेमिका वाली बात। वह जो भी महिला हैं- यदि वे वास्तव में हैं तो- प्रणम्य हैं। मेरा दावा है कि बिना सिरदर्द की गोली लिए आप अकेले-अकेले आलोक धन्वा के साथ दो घंटे नहीं गुजार सकते। और इतने सारे ऐडिशनल सिरदर्द के बाद भी यदि कोई बाल-बच्चेदार साठ-पैंसठ साल की महिला आलोक धन्वा के साथ इस कदर प्रेम करती रही कि उसकी बहुत सुंदर नवयौवना पत्नी अंततः परित्यक्ता बनकर रह गई- ऐसी स्त्री के प्रति संपूर्ण मानव जाति का सिर सम्मान से झुक जाना चाहिए।
जब मैं आरा में पार्टी का काम देख रहा था तो सभी पार्टी सदस्यों की एक मीटिंग इस अकेले मुद्दे पर बुलाई गई थी- 'क्या आप अपनी पत्नी को पीटते हैं?' जाहिर है, यह एक गलत उनवान था क्योंकि मीटिंग में एक-दो स्त्रियां भी शामिल थीं। पूरी मीटिंग में हम जैसे छड़ों और रिक्शा यूनियन के अध्यक्ष गोपालजी को छोड़कर (जिनका कहना था कि उन्होंने कभी अपनी पत्नी पर हाथ नहीं उठाया, उल्टे उनकी पत्नी ने ही एक बार ऐसा किया था। बाद में इस बात की तस्दीक भी हुई। उनकी पत्नी अस्पताल में दाई का काम करती थीं। दोनों लोगों ने आरा में ही स्थित अपने-अपने घरों से भागकर विवाह किया था और अपने रस्टिक अपीयरेंस के बावजूद दोनों के बीच लैला-मजनूं जैसा प्रेम था।) बाकी सभी ने कबूल किया कि इस या उस वजह से उन्होंने पत्नी को पीटा जरूर है।
मीटिंग से एक आम राय यह निकलती दिखी कि घरेलू तनाव में ऐसी स्थितियां पैदा होती हैं लेकिन ऐसे में अपने आवेगों से अपने मूल्यबोध के जरिए निपटा जाना चाहिए। तभी मीटिंग में एक प्रबल प्रतिवाद का स्वर उभरा। हमारी नाटक टीम युवानीति के निर्देशक सुनील सरीन थे और उनकी पत्नी अनुपमा उस समय हमारे पास उपलब्ध सबसे अच्छी अभिनेत्री थी। सुनील ने कहा था कि नौकरी न मिलने के फ्रस्ट्रेशन में एक बार अनुपमा पर उनका हाथ उठ गया था।
जाहिर है, होम्योपैथी की दवाई जैसे अहानिकर/अलाभकर अंदाज में मीटिंग का खत्म होना अनुपमा को अच्छा नहीं लग रहा था। उसने संयोजक को हाथ से रुकने का संकेत किया और बोली, 'सुनील को अगर नौकरी न मिलने का इतना ही फ्रस्ट्रेशन था तो वे अपने हाथ-पैर तोड़ लेते, मर जाते, लेकिन इन्होंने मुझे क्यों मारा?' यह बात मूल्यबोध जैसे किसी भी बौद्धिक नुस्खे से ज्यादा ताकतवर थी। सबको लगा कि गृहस्थी के मामले पुरुषों के मूल्यबोध पर छोड़ने का वक्त अब जा चुका है। मुझे लगता है कि असीमा की करुण कथा में अनुपमा जैसी ऐंठ की थोड़ी गुंजाइश जरूर होनी चाहिए थी- अगर वह होती तो आलोक धन्वा में देवता और राक्षस, दोनों देखने के जो अतिरेक इतना परेशान करते हैं, वैसा न होता और हम जान पाते कि अच्छी कविताएं रचने वाला यह जो आदमी है, वह सचमुच कैसा है।
17 comments:
बातचीत में आपका यह लेखन अहम हस्तक्षेप है, ये कबर्ड्स में बंद बहुत से कंकालों को झकझोरने जैसा है, शुक्रिया।
...लेकिन इतना तो तय है कि शादी-ब्याह जैसे मामलों में किसी भी बिंदु पर यदि आप खुद को वस्तु बन जाने देते हैं- यानी अपनी होनी का फैसला आप किसी और के हाथ में सौंप देते हैं- फिर चाहे वे आपके माता-पिता हों, या आपका प्रेमी या कोई प्रिंस चार्मिंग या धीरोदात्त नायक, या कोई क्रांतिकारी योद्धा या नए युग की आवाज के रूप में प्रतिष्ठित कोई दैवी प्रतिभा- तो फिर आगे भी वस्तु बनकर जीना ही आपकी नियति होगी। भले ही चमचे पत्रकारों द्वारा वर्णित असीम-अलौकिक प्रेम का महिमामंडित मुलम्मा आप पर अनंत काल तक चढ़ा रहे, लेकिन एक खुदमुख्तार व्यक्ति बनकर जीने का गौरव आप बहुत भारी कीमत चुकाए बिना फिर कभी नहीं हासिल कर सकेंगे/सकेंगी।...
बात में दम है।।।
अभय जी और नीलिमा जी ने कुछ पहलकदमी ली है लेकिन ज्यादातर लोग असमंजस में हैं।
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http://bakalamkhud.blogspot.com/2007/07/blog-post_23.html
yaha meree kal ki post hai isee mudde par .dekhiyegaa.
आपके माध्यम से बहुत कुछ जानने को मिला धन्यवाद.
असीमा की करुण कथा में अनुपमा जैसी ऐंठ की थोड़ी गुंजाइश जरूर होनी चाहिए थी- अगर वह होती तो आलोक धन्वा में देवता और राक्षस, दोनों देखने के जो अतिरेक इतना परेशान करते हैं, वैसा न होता और हम जान पाते कि अच्छी कविताएं रचने वाला यह जो आदमी है, वह सचमुच कैसा है।
नहीं, ऐसा होता तो फिर गॉसिप और गप्पबाजी का ऐसा अनुकूल माहौल कहां से मिलता.. असीमा हों, आलोक हों, जब तक देव और दानव वाली तस्वीरें न उकेरी जाएं, कथावाचन रसपूर्ण नहीं होगी, और न श्रोतागण पर्याप्त चिंता दिखा रहे हैं, देखो वाला अभिनय कर सकेंगे. समूचा प्रकरण पिटियेबल और सिर्फ़ पिटियेबल है. और जो उससे कुछ नतीजा निकाल लेने की हड़बड़ी में हैं, वे सिर्फ़ उपहास व करुणा के इस घड़े में कंकड़ी फेंकेंगे, कुछ नया नहीं सीख लेंगे.
अच्छा लिखा.
सही लिखा । हर पहलू के दो पक्ष होते हैं और उसके बीच ढेर सारी ज़मीन जिनपर दोनो पक्ष अपने अपने खेमे गाडते हैं , कब्ज़ा करते हैं ,अपना गुट तैयार करते हैं ।अलग स्थितियों में , अलग परसेप्शन्स में हर किसी को अपनी ही बात सही नज़र आती है ।
चलिए मामले का एक और पक्ष कुछ तो सामने आया। नहीं तो कुछ उत्साही लोग तो आलोक जी को सरे आम लटका देने में भी परहेज न करें।
कुछ देवियाँ तो वीरांगना तुम बढ़ी चलो स्टाइल पर महाकाव्य तक लिखने लगी हैं।
भला हो इन सबका और क्रांति जी और आलोक जी का भी ।
मैं आलोक जी को 25 साल से देखता आया हूं। जानने की जहां तक बात है तो वह भी 18-20 साल तो हो ही गया होगा। हमारे क्रांतिकारी साथियों ने ही आलोक जी की छवि लार्जर दैन द लाइफ बना कर रखी। उन्हें हमेशा नक्सलबाड़ी का जीता जागता उदाहरण बनाकर पेश किया गया। लेकिन हमें उनके बारे में कतई कोई भ्रम नहीं था। पटना में वो सिर्फ दो शख्स से नियंत्रित रहते थे और आज भी रहते हैं, वे लोग भी कभी भ्रम में नहीं रहे। क्रांति ने यानी अबकी असीमा ने पटना में नाटक किये हैं और इप्टा के साथ किये। गिरीश कार्नाड का लिखा रक्त कल्याण में अभिनय किया। आपकी पोस्ट पढ़ने के बाद मैंने हाशिये पर क्रांति की आप बीती पढ़ी। यकीन जानिये, मुझे कहीं कोई बात गलत नहीं लग रही। क्रांति ने बहुत सारी बातें फिर भी नहीं लिखी, जिसे हमारे जैसे लोगों ने पटना और फिर एनएसडी में उसके रहने के दौरान देखे। यह दुखद है लेकिन कड़वी सचाई है। एक कामरेड का अंतत: पति ही होना। आमतौर पर कोई भी स्त्री जब अपनी निजी लिखती है तो हमें उस पर सहज यकीन नहीं होता। खासकर तब जब वो उस मर्द के बारे में लिखें, जिसे हम जानते हैं और जिसकी एक खास छवि हमारे दिमाग में रहती है। लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि स्त्री को जो निजी है, उसे साझा किये बगैर उसकी लड़ाई मुमकिन नहीं। इसे समझने के लिए एक क्रांतिकारी को पहले एक नरम दिल इंसान होना होगा।
भाई बोधिसत्व जी जरा स्पषट करें उन वीरांगनाओं के नाम जो आपके अनुसार वीर तुम बढे चलो टाइप महाकाव्य लिखने लगी हैं ! बहुत अफसोस हो रहा है आपकी इस टिप्पणी पर ! आप भी तो एक बडे कवि माने जाते हैं न !
चंद्रभूषन जी बहुत सटीक लिखा है आपने ! पढकर मनों को खंगालने की जरूरत महसूस हो रही है !
चंदू भाई, आपने बहुत सही बातें रखी हैं, लिखी हैं।
अच्छा लगा इस विषय पर एक नया पहलू आपकी लेखनी से देखकर. बहुत से नये आयाम दिखे इस मुद्दे के.
चंद्रभूषणजी, आपका लेख दो दिन पहले पढ़ा था। आज फिर पढ़ा। आपके लेख के द्वारा आलोक धन्वा के बारे में ,असीमा के बारे में पढ़ा। नसीरुद्दीन जी की टिप्पणी से और ज्यादा पता लगा आलोक धन्वा के बारे में। अपने एक साथी के बारे में कुछ कहना, जिसकी छवि लार्जर दैन लाइफ़ वाली हो , बड़ा मुश्किल होता है। आपने यह काम बखूबी किया इसके लिये आप बधाई के पात्र हैं।
आपने जैसा आलोक धन्वा के बारे में लिखा उनसे बात करने का मतलब है वे बोलते रहें और आप सुनते रहें और वे अंत में कहें कि बहुत अच्छी बातचीत हुई और आप जवाब में कहें कि हां, इस जीवन में इस बातचीत को आप कभी भूल नहीं पाएंगे। इससे उनकी मन:स्थिति के बारे में पता चलता है। आगे भी जैसा आपने लिखा कि उन्होंने मेलोड्रामाई अन्दाज में अपने लिये जीवन साथी मांगा और उनको असीमा के रूप में एक वस्तु मिल गयी। आलोक धन्वा ने वस्तु का वस्तु के रूप में ही इस्तेमाल किया। आजकल वैसे भी यूज एंड थ्रो का जमाना है वस्तुओं के मामले में।:)
पति,पत्नी के पहले आलोक-धन्वा और असीमा इंसान हैं। आलोक धन्वा चाहे जितने बड़े कवि हों, चाहे जितने रेडिकल हों अगर वे किसी इंसान से इस तरह की हरकतें करते हैं जैसे उन्होंने असीमा के साथ किये तो वे इंसान के तौर पर घटिया व्यक्ति हैं। उनको जानने वाले शायद उनकी इस हरकत के मनोवैज्ञानिक कारण बता सकते हैं,यह कह सकते हैं कि कवि अपने पत्नी के माध्यम से व्यवस्था के खिलाफ़ संघर्ष में लगा था इसलिये उसने ऐसा किया वर्ना दिल से वे बहुत कोमल हैं। लेकिन कोई भी बात उनकी इस हरकत (अगर यह सही है) जायज नहीं ठहरा सकती।
बोधिस्त्वजी की टिप्पणी से बहुत निराशा हुयी। वे अपनी पिछली पोस्ट में कुछ ऐसा बता चुके हैं कि वे कवि से पहले एक आम आदमी हैं। उनकी वीरांगना कवियत्री वाली बात से लगता है कि वे एक आम आदमी ही हैं जिसको यह अच्छा नहीं लगता कि कोई दूसरा उस काम को (खराब तरीके से?)करे जिसको वे खुद बहुत अच्छी तरह से करते हैं। मुझे ऐसा लगता है कि अगर किसी कवियत्री ने कुछ वीरांगना टाइप कविता लिखी है और आप एक अच्छे कवि के रूप में उसमें कुछ कमियां पाते हैं तो आप उसको बतायें ये कमी है। लेकिन इस तरह 'चालू रिमार्क' मेरी समझ में आपके स्तर से उचित नहीं।
बोधिसत्वजी, ऐसा मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि आपकी कविताओं की लोग तारीफ़ करते हैं तो यह सहज आशा है कि आप दूसरों में कविता की कुछ समझ विकसित करेंगे। यह मेरी अपनी समझ है और इसलिये है कि मैं एक अच्छे कवि से आशा करता हूं कि वह अपनी बात आम लोगों से बेहतर तरीके से व्यक्त करने की क्षमता रखता है। आशा है कि आप इसे इसी भाव में ग्रहण करेंगे।:)
आप सब तारीफ के इतने भूखे क्यों हैं भाई। एक मेरे ही तारीफ ना करने से ऐसा क्या बिगड़ जा रहा किसी का। क्या किसी रचना को महान कह देने से वह बड़ी हो जाती है।
और जो तारीफ ना करे उसके पीछे क्यों पड़े हैं आप सब अपना काम करो भाई । मेरी बात को अस्वीकार कर दो बात खतम।
आसीमा वाले मामले मे मुझे लगता है की जो कुछ लिखा गया है वह पूरा सच नही है.
हम सब जानते है की तलाक़ के लिए अदालत मे कैसे कैसे सच और झूठ बनाए जाते है.
यह सब जो कथित रूप से एक कवि का पर्दाफ़ाश की शक्ल मे लिखा गया है उस प र कुछ शक भी किया जाना चाहिए.
मैं जनता हूँ की विवेक की बात करते ही लोग आपको महिला विरोधी कहकर हल्ला बोल देंगे.
कुछ ऐसा ही हो भी रहा है दिल्ली मे. जैसा मैने सुना है. लोग
बाक़ायदा आसीमा के समरथन मे हस्ताक्चर अभियान चला रहे है दरअसल इस खेल को संचालित करने वाले
कुछ ऐसे लोग भी होंगे जो इस बहाने आलोक धनवा से अपना हिसाब किताब भी चुका रहे होंगे साहित्य मैं भी
ऐसे लोग की कमीं नही है जिन्हे परपीरा मे आनंद आता हैं. अशक जी को तो ऐसे मामलो मे महारत ही थी. आज भी ऐसे घर तौरक बहुत है. मुझे इसमे कई बाते बनावती और झूठ भी लग रही है मानो इस आत्मकथा
को किसी वकील से सलाह मशविरा करके लिखा गया हो. मामला काफ़ी कुछ तलाक़ और प्रोप्रती मे हिस्सेदारी का है वरना तो दोनो काफ़ी समय से अलग रह ही रहे थे. आसीमा योग्य और प्रतिभाशाली है मगर इतनी भोली नही है. कही आलोक पर चरित्र हीनता का आरोप इसीलिए तो नही लग रहा. आत्मकथा के पाठ मे ही इसके कुछ संकेत मिल भी रहे है. इसीलिए इस मामले मे किसी टिप्पणी से पहले तनिक धर्य जरूरी है.
शशि भूषण द्विवेदी
मुझे दुख हुआ ऐसे व्यक्ति के बारे में यह सब पढ़ कर जिसे मैं अपना प्रिय कवि मानता आ रहा था। इस प्रकरण का पता आज ही कुछ स्थानों से चला। खोजने निकला तो आपका यह आलेख मिल गया। आपके लेखन की प्रशंसा करने को मन कर रहा है। कोई सहमत हो न हो, मेरी हक़ीर राय में कोई कितना भी बड़ा कवि क्यों न हो...उसे अच्छा इन्सान पहले होना चाहिए। वरना कविताओं के रंग चटख होते हुए भी सूखे हुए से लगते हैं। ओशो ने एक बात कही थी जो आज सच दिखती है...किसी कवि की अच्छी पंक्तियां पढ़ कर उसे ढूंढ़ने मत निकल पड़ना, निराशा हुोगी।
अगर यह सब सच है तो मुझे भी हुई।
आलोक धन्वा अपन को कभी पसंद नहीं आये। कुंठित। लार्जर दैन लाइफ़ जैसी बात पढ़ कर ऐसा लगा मानो हम ने अभी ही आँख खोली हो।
आलोक धन्वा के बारे में जो मेरी राय है, अब वह दरकने लगी है जैसे काँच की खिड़की पर किसी ने पत्थर चला दिए हों। सत्य चाहे जैसा भी है,लेकिन एक स्त्री के दर्द को समझा तो जा ही सकता है।
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