Wednesday, July 18, 2007

कौन त्रिलोचन?

प्रियंकर जी के ब्लॉग पर भाई बोधिसत्व की एक कविता पड़ी है। कवि त्रिलोचन की बीमारी की खबर सुनकर धक् से कलेजा मुंह को आ जाने जैसा भाव उसमें है और खानों में बंटे हिंदी समाज में उनके प्रति व्याप्त उपेक्षा से उपजी तोड़ देने वाली तकलीफ भी। कुछ समय पहले कहीं डाली गई अपनी एक टीप में मैंने त्रिलोचन का जिक्र किया था, साथ में कोष्ठक में 'प्रगतिशील त्रयी के कवि' का एक पुछल्ला भी नत्थी कर दिया था। किसी भाई को यह बहुत बुरा लगा और उन्होंने इसपर एक जुतियाती हुई सी बेनाम टिप्पणी भेज दी। मुझे उनकी टिप्पणी पर खुन्नस तो हुई लेकिन उससे ज्यादा खीझ खुद पर हुई कि मुझे त्रिलोचन का परिचय देने की ऐसी क्या जरूरत पड़ गई थी।

गलती को सुधारने के लिए इस बारे में अब सिर्फ इतना निवेदन किया जा सकता है कि पूरा ब्लॉग जगत अभी हिंदी साहित्य से ज्यादा परिचित नहीं है। यहां कभी-कभी लोगबाग रघुवीर सहाय और रघुपति सहाय 'फिराक' के बीच में भी गड़बड़ा जाते हैं लिहाजा इतने अंधेरे में सूरज को दिया दिखाने की यह गलती माफ कर दी जानी चाहिए।

त्रिलोचन जी से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली, यमुनापार में मदर डेरी के पास ऊना अपार्टमेंट में हुई थी, जहां वे मेरे मित्र राजेश अभय, नंदिता और संजय जोशी के साथ रह रहे थे। एक दिन अपने किसी काम से मैं राजेश के यहां गया हुआ था। बातचीत के बीच राजेश ने कहा, बाबा से मिलेंगे। मैंने सोचा शायद राजेश, संजय या नंदिता के घर से कोई बुजुर्ग आए हों। दूसरे कमरे में बड़ी-बड़ी, बिखरी, सफेद दाढ़ी वाले पाजामा-बनियान पहने कसे बदन के एक बुजुर्ग उठंगे हुए अखबार देख रहे थे। राजेश ने मिलवाया, कहा बाबा ये चंदू भाई हैं, जनमत में काम करते हैं, कविता भी लिखते हैं। कोई एक घंटा हम लोग तमाम अवाट-बवाट चीजों पर बतियाते रहे। मुझे आश्चर्य हुआ- बड़ा जानकार बुजुर्ग है, और एकदम अपटुडेट। सिर्फ कविता के बारे में उनसे कोई बात नहीं हुई, क्योंकि मुझे लगा, बिना तुक की कविताओं में किसी आम बुजुर्ग की भला क्या दिलचस्पी हो सकती है।

कुछ ऐसा संयोग कि नमस्ते का जवाब नमस्ते से देने के बजाय गर्मजोशी से हाथ मिलाने वाले इन बुजुर्ग से बातचीत करके मैं घर चला आया, लेकिन ये हैं कौन, इस बारे में कुछ बताने की जरूरत राजेश अभय को महसूस नहीं हुई। शायद यह ठीक ही हुआ क्योंकि इस समय तक त्रिलोचन की कोई कविता मैंने नहीं पढ़ी थी और नाम भी नागार्जुन, शमशेर की निरंतरता में ही सुना था। कुछ दिन बाद किसी और चीज पर चर्चा के क्रम में राजेश ने बताया तो मुझे झेंप सी हुई कि इतने बड़े आदमी से यह मैं क्या फालतू बातें करके चला आया।

उस समय मेरे जीवन में एक अलग प्रकरण चल रहा था, जिसका ब्योरा यहां देना उचित नहीं होगा। संक्षेप में कहें तो यह मेरे शादी-ब्याह से जुड़ा हुआ था, जो झंझट और उत्तेजना के मामले में आल्हा वाली माड़ोगढ़ की लड़ाई से कम नहीं था। इसी सिलसिले में नैनीताल जिले के खटीमा नाम के कस्बे में मैं गया हुआ था, जहां फुरसत के एक छोटे से वक्फे में ताजा-ताजा दोस्त बने समान विचारधारा वाले एक नौजवान रवींद्र गड़िया ने 'त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताएं' पढ़ने को दी। इसमें 'चंपा काले-काले अक्षर नहीं चीन्हती' रवींद्र ने पढ़ाई और फिर 'नगई महरा' और कई सारे सॉनेट मैंने खुद पढ़े।

त्रिलोचन को पहली बार पढ़ने के अनुभव के बारे में एक झटके में कुछ बताना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। यह अंडरटोन्स की कविता है, जो हिंदी जैसी एक विकासमान भाषा में बड़ी दुर्लभ चीज है। चीखते, भड़भड़ाते हुए, तयशुदा शब्दावली और वैचारिक आग्रहों के साथ बोलना भारत में कभी कविता की पहचान नहीं रही। लेकिन दुर्भाग्यवश अभी की जिस भाषा में हमारा लिखना-पढ़ना होता है, उसका स्वभाव कुछ ऐसा ही बनता चला गया है। त्रिलोचन और शमशेर इसके अपवाद हैं लिहाजा उनको पढ़ने के लिए आपको धीमी आवाजें और फुसफुसाहटें सुनने के लिए खुद को अभ्यस्त बनाना पड़ता है।

एक और खास बात त्रिलोचन का ठेठ देसी मुहावरा है। एक हिंदुस्तानी किसान बड़ी बातें जितने सहज तरीके से कह जाता है, उसे समझना टेढ़ा काम है, लिहाजा पढ़े-लिखे लोग उसे अनसुना कर देना ही बेहतर समझते हैं। त्रिलोचन की एक कविता, शायद 'नगई महरा' में सारे करम कर चुकी गांव की एक बुआ बिना विवाह किए किसी के साथ रह रही एक औरत की लानत-मलामत कर रही हैं। कहार जैसी प्रजा बिरादरी की यह स्त्री चाहकर भी जवाब में कुछ तीखा बोल नहीं सकती, लिहाजा कविता में वह इसृ तरह का कुछ कहकर रह जाती है कि 'बुआ, सबको अपना-अपना देखना चाहिए '।

बोरिस पास्तरनाक ने अपनी कालजयी रचना 'डॉ. जिवागो' में एक लयदार प्रेमगीत की तुलना किसी नहर या नदी पर बने स्लूइस गेट से की है, जिसके एक तरफ पानी बिल्कुल रुका हुआ नजर आता है तो दूसरी तरफ वह प्रचंड गति से हरहराता हुआ बहता दिखाई देता है। वे बताते हैं कि ऐसे गीतों में बार-बार आ रही टेक कुछ ऐसा भ्रम पैदा करती है जैसे बातें अपनी ही जगह कदमताल कर रही हों, लेकिन लय की इस रुकी हुई सतह के नीचे भाव विकट गति से आगे बढ़ रहे होते हैं। त्रिलोचन की कविता की लयकारी भी कुछ ऐसी ही है- सॉनेटों में यह काफी ज्यादा है लेकिन बाकी कविताओं में भी इसका असर कम नहीं है। उनकी एक कविता में मृत पत्नी के वियोग में तप रहे एक व्यक्ति के नजरिए को हास्यास्पद समझने वाले मूढ़ सामाजिक चातुर्य से भरी टिप्पणी कविता की अंतिम टेक के रूप में आती है- 'उसमें क्या है, उसमें क्या है, उसमें क्या है...'।

ऐसी कितनी तो बातें हैं जो त्रिलोचन की कविता को बहुत-बहुत जरूरी बनाती हैं, लेकिन इनसे मेरा परिचय खटीमा के रवींद्र गड़िया न कराते तो शायद इनतक मेरी पहुंच कभी न बनती। खटीमा से लौटने के अगले दिन ही मैं सीधा राजेश अभय के घर गया और त्रिलोचन जी के सामने कुछ देर मुंह सिए बैठा रहा। हिम्मत बंधी तो बोला, 'खटीमा में आपकी कविताएं पढ़ीं- पहली बार'। त्रिलोचन जी बच्चों की तरह खुश हो गए। पूछने लगे, कहां पढ़ीं, किसके पास थी किताब। उसी दिन मैंने पहली बार अस्सी के लपेटे में पहुंच रहे एक बुजुर्ग को ह्विस्की पीते देखा और लगा कि यह तो यार आदमी है।

उसी समय पटना या बनारस में जन संस्कृति मंच का सम्मेलन होने वाला था और किसी अध्यक्ष की तलाश जोरों पर थी। मैंने रामजी भाई से कहा कि क्यों न त्रिलोचन जी से बात की जाए। रामजी भाई उनसे बात करने गए और मुझसे भी ज्यादा दीवाने होकर लौटे। करीब छह-सात साल त्रिलोचन जी जसम के अध्यक्ष रहे और एक बार अटल बिहारी वाजपेयी से कोई पुरस्कार लेने का आरोप लग जाने के बाद ही इस जिम्मेदारी से मुक्त हुए, लेकिन इससे काफी पहले जसम के दिल्ली सम्मेलन में ही मैंने उनका जो वक्तव्य सुना, वह जसम वालों के लिए कोई कम परेशानी पैदा करने वाला नहीं था।

बहरहाल, त्रिलोचन जी के साथ हमारे घरऊ सान्निध्य की शुरुआत इसी तरह हुई। उस समय वे ईरानी एंबेसी में फारसी-हिंदी शब्दकोश पर काम कर रहे थे। रोजाना दिल्ली की दारुण बसों पर सवार होकर मदर डेरी से फिरोजशाह रोड जाते थे, दिन भर वहां काम करते थे और फिर शाम की भीड़ में लदकर वापस लौटते थे। जब भी उनका दिल करता, मदर डेरी के बजाय शकरपुर उतर आते और बी-30, सुंदर ब्लॉक में जनमत के हमारे 'आवास कम दफ्तर' पहुंच जाते। वहां एक बार किसी चीज पर उनसे चर्चा शुरू हो जाती तो रात गुजर जाती। सुबह मुर्गा बोलने की आवाज के साथ हम सोने की योजना बनाते और तीन-चार घंटे बाद नाश्ते के साथ ही वही क्रम फिर शुरू हो जाता।

त्रिलोचन जी के ज्ञानकोश होने की बात यूं ही नहीं कही जाती। वे दस हजार के लगभग कविताएं याद होने की बात स्वीकार करते हैं लेकिन मुझे यह तादाद और भी ज्यादा लगती है। पिछले साठेक साल में भारत के तमाम लोक कवियों से लेकर सड़कछाप और क्लासिकी कवियों, मध्यकाल और संस्कृत के न जाने कितने कवियों और अंग्रेजी के अलावा और कई दूसरी यूरोपीय भाषाओं के कवियों की रचनाएं भी उन्हें कंठस्थ हैं- यहां तक कि देखे गए कवियों के लहजे और उनकी अदायगी भी। किसी लेखक की लिखावट कैसी थी, इस बारे में आप उनसे जानकारी ले सकते हैं। मध्यकाल का कौन सा कवि कहां का रहने वाला था और उसके घरेलू हालात कैसे थे, इस बारे में उसके गांव जाकर जुटाई गई सूचनाएं त्रिलोचन के पास मौजूद हैं। पूरे उत्तर भारत का चप्पा-चप्पा उनका अपने पैरों से नापा हुआ है, इसका अंदाजा सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना उनके बताए ही हो जाता है।

त्रिलोचन को एक मिथक और किंवदंती माना जाता है तो ऐसा यूं ही नहीं है। मजे की बात यह कि साहित्यकार हलकों में उनके सच से ज्यादा चर्चा उनके झूठ की होती है। उनकी दी हुई सूचनाओं में अंतर्विरोध और घालमेल के कुछ मामले मेरी भी पकड़ में आते रहे हैं, लेकिन उसे झूठ के बजाय आत्मगत सत्य कहना मैं ज्यादा बेहतर समझता हूं। मसलन, हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी के क्रांतिकारियों के साथ अपने संबंध से जुड़े उनके किस्से, जो अलग-अलग अदायगियों में थोड़े-बहुत बदल जाया करते हैं। लेकिन कोरे तथ्यों के मामले में क्या एक मनीषी को इतनी छूट नहीं मिलनी चाहिए? त्रिलोचन इन सूचनाओं से बड़े हैं और उनका कहा एक-एक शब्द बार-बार सुने, और फिर-फिर समझे जाने लायक है।

यह सब कह चुकने के बाद बोधिसत्व की कविता में मौजूद धक्के और अपने भाषिक समाज के प्रति बरबस उमड़ने वाली जुगुप्सा को अपने भीतर महसूस करता हूं और उम्मीद करता हूं कि अपने अंतिम दिनों में चल रहे त्रिलोचन से उऋण होने का यत्न करने के लिए हम सब मिलकर कोई योजना बनाएंगे।

9 comments:

बोधिसत्व said...

अच्छा लिखा है आप ने।
पिछले साल मैंने मुंबई से कुछ करने की कोशिश की थी पर मेरी सारी योजना धरी की धरी रह गई। मेरी कविता उसी असमर्थता की खीझ है। कुछ बातें हम लेख लिख कर नहीं बल्कि लिख कर ही कह सकते हैं। अगर सचमुच में हम एक बार चल कर उनसे मिल ही पाते। देख ही पाते।
हमने इलाहाबाद में एक अच्छी बात-चीत रेकार्ड की थी । वह रेकार्ड इलाहाबाद में सुधीर सिंह के पास है। उसमें त्रिचन जी ने शव्दों के बननेपर बात की थी। एक शव्द मोमिया का उदाहरण भी दिया था। इस शव्द पर रोज बादार जाने वाला ही ध्यान दे सकता है। क्योंकि यह शब्द प्लॉस्टिक की थैलियों के लिए सब्जी बेचने वालों ने गढ़ा था।
त्रिलोचन जी शतायु हों

काकेश said...

त्रयी के त्रिलोचन के बारे में जानना सुखद रहा.जिन कविताओं का जिक्र किया आपने उनको भी पढ़वायें.इतने अच्छे लेख के लिये साधुवाद.

परमजीत सिहँ बाली said...

जानकारी देने के लिए धन्यवाद।लेख अच्छा है लेकिन अगर त्रिलोचन जी की कुछ रचनाए पढने को मिल जाती तो बहुत बढिया होता।

चंद्रभूषण said...

प्यारे भाई अभय या बोधिसत्व या दोनों, यदि संभव हो तो काकेश जी और बाली जी की इच्छा पूरी करें और त्रिलोचन जी की कुछ कविताएं अपने ब्लॉग पर जल्द से जल्द चढ़ा दें। मुझे इस काम में कुछ वक्त लग जाएगा क्योंकि उनका संग्रह अभी मेरे पास नहीं है, कहीं से जुटाना पड़ेगा।

Avinash Das said...

बिना किसी अतिरिक्‍त भावुकता के एक मार्मिक वृत्तांत...

अनूप शुक्ल said...

चंद्रभूषणजी, त्रिलोचनजी के बारे में यह् अनौपचारिक् बातें जानकर् अच्छा लगा। हिंदी ब्लाग् जगत् हिंदी समाज् का ही प्रतिनिधित्व् करता है। लिहाजा त्रिचोलनजी के बारे में कोई ब्लाग् पढ़ने वाला -लिखने वाला अगर् नहीं जानता तो यह् कोई ताज्जुब् की बात् नहीं है। त्रिलोचनजी की अधिक् से अधिक रचनायें नेट् पर् लाकर् उनके बारे में लोगों को जानकारी दे सकते हैं।

इरफ़ान said...

भाई बहुत अच्छा. एक तथ्यात्मक सुधार करें- ईरान कल्चर हाउस फिरोज़शाह रोड नहीं तिलक मार्ग पर है. बाक़ी बहुत बढिया लिखा है आपने.
इरफ़ान

अभय तिवारी said...

आप लोग के हिस्से में सब गुरुजनों का सानिध्य आया मैं कोरा ही रहा.. सब बड़े लोगों के आशीर्वाद से वंचित रहा.. इस बात का बड़ा संताप है..

azdak said...

सही लिखा, दोस्‍त.. नॉनसेंटिमेंटल, मार्मिक..