Wednesday, July 4, 2007

बारिश में कबीर

फिराक साहब कहते थे, किसी दिन सुबह भोर में मुंह अंधेरे नदी किनारे चले जाओ और कबीर को याद करो- नदिया बहे गंभीर रे साधो...। यह जो पानी है, अपनी सहज गति में ऐसी ही अवचेतन छवियां जगाता है, बशर्ते आपके पास ठहरकर उसे देखने की फुर्सत हो। ऐसे मौके मुझे बहुत ज्यादा नहीं मिले, लेकिन एकाध बार बारिश में गिरते पानी को नजदीक से महसूस जरूर किया है।

पटना में एक रात बारह बजे मैं, इरफान और विष्णु राजगढ़िया झमाझम बारिश में बिना कोई छाता-वाता लिए राजेंद्र नगर से पैदल निकले, करीब चार किलोमीटर दूर उस प्रेस में गए, जहां जनमत छपता था, वहां मैगजीन का एक फर्मा तुड़वाकर कॉमरेड विनोद मिश्र का एक आर्टिकल सेट कराया, फिर नये फर्मे की प्लेट मशीन पर चढ़वाकर वैसी ही बारिश में करीब दो बजे वापस लौट आए।

उस रात की याद अनोखी है। ऊपर बादलों का काला-भूरा, नीचे पानी का मटमैला समतल। किसी सीप के भीतर जिंदा मोतियों से छपछप चलते हम तीन जन...और इस पूरे परिदृश्य को अपने अनगिनत धागों से बांधती लैंप पोस्टों की रोशनी में चिलकती बड़ी-बड़ी बूंदें । इरफान को फितरतन लौटते वक्त शरारत सूझी और वे जोर से दो-तीन बार हो-हो चिल्लाए- यह औचित्य देते हुए कि कभी-कभी खुलकर चिल्लाना भी बहुत जरूरी है...ऐसा न करने से आप अनजाने में लो-पिच पर बोलने के आदी होते चले जाते हैं।

लेकिन बारिश और बगावत के ऐसे मिले-जुले क्षण मेरी याद में कम ही आते हैं। इस मौसम के मुख्य संदर्भ मेरे लिए खीझ और विराग के हैं। इन्हें याद करना खुद से जूझने जैसा है और इस जूझ में एक निश्चित जगह कबीर की भी बनती है।

कबीर और पानी की मिली-जुली याद मेरे जीवन के सबसे बड़े धक्के के साथ जुड़ी है। घर में हुई एक खुदकुशी के कोई दो महीने बाद बाहर की कोठरी में पुरोहित बाबा प्रेत शांति के लिए भागवत बांच रहे थे और पूरा घर, पूरा गांव, पूरा इलाका कई दिन से जारी जबर्दस्त बारिश में चुपचाप भीग रहा था। हमारी ही तरह, नियति के सामने सिर झुकाए हुए, बेबस और लाचार ।

कबीर की कोई समझ मुझे न पहले थी न आज है, लेकिन भागवत सुनते हुए कहीं से उड़कर कान में पड़ी रेडियो में बज रहे न जाने किस गायक के गाए पद की झनकार आज भी निर्वेद के क्षणों में मेरे भीतर गूंजती है- झरि लागे रे महलिया, गगन घहराय...गगन घहराय...

मेरे मन में बारिश को लेकर दर्ज खुशी और उत्साह के क्षण कम हैं, शोक और वैराग्य के कहीं ज्यादा...और भय, रहस्य के उनसे भी ज्यादा। रात में छत से लगातार पानी टपकना, कितनी-कितनी बार चारपाई को इधर से उधर, उधर से इधर ले जाना और फिर सुबह रतजगे की चिड़चिड़ाहट से सराबोर छप-छप करते बाहर निकल जाना खुद में कोई ट्रेजेडी नहीं थी। मेरे गांव के ज्यादातर लोगों का हाल कमोबेश ऐसा ही था। लेकिन बचपन में ही शहर के उजाले छोड़कर हमेशा के लिए गांव चले आने की मजबूरी मेरी और मेरे परिवार की खास अपनी थी।

इसकी शुरुआत एक बरसाती शाम से हुई थी। पिताजी की नौकरी छूट चुकी थी, दोनों बड़े भाई शहर के स्कूल से नाम कटाकर गांव वापस आ चुके थे और हम दो बच्चे- घर पर फंकैती करने वाला तीन-चार साल का मैं और दूसरी-तीसरी में जाने वाली करीब दुगुनी उम्र की मेरी बहन- गांव पहुंचाए जा रहे थे। हमें छोड़ने आए ताऊजी ने बाजार से कटहल खरीदा और गरजते बादलों के बीच चमकती बिजलियों से रास्ता पहचानते हम कोई दो मील दूर अपने गांव की तरफ चल पड़े। हमारे रास्ते में बरगुद्दी भी आया था- बरगद का एक बहुत पुराना ढहा हुआ पेड़, जिसपर इलाके का सबसे प्रचंड भूत बसे होने की बात कही जाती थी...

बारिश के मौसम में जब बादल घिरे होते और वक्त का पता नहीं चलता तब गांव में सारा दिन शाम का इंतजार ही बाकी रहता था। अपनी उम्र के बच्चों से अपरिचय, उनके हाथों कभी भी पिट जाने का डर और सबसे बड़ा डर उन झगड़ों का, जो पता नहीं क्यों उमस भरे मौसम में बिना किसी बात के अपने आप उभर आते थे। कभी मां और पिताजी के बीच तो कभी दोनों बड़े भाइयों के बीच।

एक बार तो बारिश की एक रात में मैंने अपने घर में सूर बड़े या तुलसी का झगड़ा हिंसक हद तक पहुंचते देखा है। बड़े भाई सूर वाले थे, शास्त्र उनके पक्ष में था- सूर सूर तुलसी ससी। मंझले भाई को कुतर्क का सहारा था। उन्होंने कहा, नहीं, सही यह है- सूर ससी तुलसी रवी। बरसात की उस रात में पांखी उधराई हुई थीं और मां सबसे जल्दी सो जाने को कह रही थी। आठ बजे के आसपास मुझे नींद आनी शुरू ही हुई थी कि मैंने देखा, बड़े भाई ने मंझले पर जलती हुई लालटेन फेंक मारी...

आसमान से धारोंधार गिरते पानी को साफ-सुथरे और सुरक्षित घर में बैठकर हरियर कचर पेड़ों और घासों पर पड़कर उछलते देखना खुद में एक स्वप्निल कर्म है, लेकिन इसका सुअवसर आज के शाइनिंग इंडिया में भी शायद कम ही लोगों को मिल पाता है। मेरे जैसे लोगों को यह आज उपलब्ध है, लेकिन इसकी उत्तेजना जिस संवेदनतंत्र के जरिए महसूस की जा सकती है, वह या तो मुझमें अबतक विकसित नहीं हुआ, या विकसित होने के पहले ही मुरझा गया।

टपकती हुई छत ने, गीले बिस्तर ने, आंगन से लेकर चौके तक फैली किचिर-पिचिर ने, उड़-उड़कर खाने में पड़ती पांखियों ने, अचके में छींटा पड़ जाने से चिटक गए लालटेन के शीशे ने, बौछार से बुझी हुई ढिबरी ने और गरीबी से जन्मे ऐसे ही छोटे-छोटे अनेक खलनायकों ने असमय उसे मुझसे छीन लिया। पास में रह गया सिर्फ एक बैरागी दुपहर में गुम हवा के बीच लगातार झिप-झिप बरसते मेह का निर्वेद- झरि लागे रे महलिया गगन घहराय...

6 comments:

अभय तिवारी said...

कैसी कैसी दुनिया दिखाता हुआ कसकता सा संस्मरण.. क्या ये कहना ठीक होगा कि अच्छा है..?

Pratyaksha said...

अच्छी बरसात करा दी आपने । और कुमार ग‍धर्व के निर्गुण भी याद करा दिये ।

Avinash Das said...

प्रिय अविनाश!
आज 'बारिश में कबीर' नाम से चन्द्रभूषण ने अनुपम गद्य लिखा है. मुझे इस 'प्रोज़ पीस' ने बहुत प्रभावित किया. बहुत ही आत्मीयता और तरल किस्म के राग-विराग से भरा अपूर्व गद्य है. वे बधाई के हकदार हैं. उन्हें मेरी ओर से बधाई देना.
मैं ब्लॉगस्पॉट पर टिप्पणी नहीं कर सकता हूं. संभव हो तो उनका ई-मेल पता लिखना.
प्रियंकर

v9y said...

भिगोता संस्मरण और पानी जैसी भाषा. शुक्रिया.

Udan Tashtari said...

आपकी लेखनी अद्भुत है. बस पढ़ते पढ़ते डूबते चले गये. संस्मरण को जो शब्दों में बांधा है कि हम तो खुद ही बंध गये. नमन स्विकारें.

Yunus Khan said...

एक ईमानदार और नाज़ुक संस्‍मरण । दिल डूब डूब गया ।