Monday, July 2, 2007

गौकरन पंडी जी का हिंदी सेवन

मन में साहित्यिकों के प्रति बहुत सम्मान है लेकिन इस सम्मान में एक शाश्वत रहस्य और भय का जो पहलू मिला हुआ है, उसकी जिम्मेदारी काफी कुछ गौकरन पंडी जी पर जाती है। नवीं-दसवीं में वे हमें हिंदी पढ़ाते थे और पूरी फराखदिली से इसमें अपना सारा संचित-अर्जित ज्ञान उड़ेल देते थे। दुर्भाग्यवश कक्षा में मेरी गिनती उनके प्रिय शिष्यों में नहीं होती थी, हालांकि इसका कोई संबंध मेरी उद्दंडता से नहीं था।

मैं अपने क्लास का एक छोटा और कमजोर लड़का था सो पिटाई के डर से चाहकर भी ज्यादा मुंहजोरी नहीं कर पाता था। गौकरन पंडी जी की नजर में सुपात्रता अर्जित न कर पाने की अकेली वजह यह थी कि वे बहुत ज्यादा सफाईपसंद थे और मेरी नाक उतरती बरसात से लेकर उतरते जाड़े तक के तीन-चार महीने लगातार बहती रहती थी।

एक दिन पंडी जी किसी कविता का अर्थ बोलकर लिखा रहे थे। मैं आगे बैठा था और पता नहीं कब नाक से एक बड़ी सी गाढ़ी बूंद कापी पर जा टपकी। आठवीं तक किरिंच या नरकट की गढ़ी हुई कलम इस्तेमाल करते आए हम लोगों ने नया-नया फाउंटेन पेन पकड़ना सीखा था लिहाजा लिखते वक्त कागज पर स्याही भी भरपूर टपकाते थे। ऊपर से आए पदार्थ को स्याही तक पहुंचने से रोकने के लिए मैंने झटके से उसे हथेली से कापी पर ही लीप दिया लेकिन अपनी इस खुफिया कार्रवाई को गौकरन पंडी जी की तेज नजर से छिपा नहीं पाया। उन्होंने अगले दिन से कभी भी आगे न बैठने की सख्त हिदायत देते हुए तत्काल मुझे क्लास से बाहर निकाल दिया।

नजर से ध्यान आया कि गौकरन पंडी जी की कारगर आंख सिर्फ एक थी। उनकी दूसरी आंख में कोई बड़ा खाम था। उससे उन्हें कुछ दिखाई तो नहीं ही देता था, साथ ही पता नहीं क्यों वह कुछ तिरछी, खिंची सी रहती थी, जिससे उनके चेहरे पर हमेशा गुस्से का भाव बना रहता था। इस दोष की भरपाई उनकी कामयाब आंख अपनी अद्भुत तीक्ष्णता से कर लेती थी। आगे बैठने वाले लड़के-लड़कियों में उनकी इस आंख का इतना खौफ था कि भविष्य में हमेशा पीछे ही बैठने के ख्याल से मुझे खुशी हुई।

लेकिन मुझे अंदाजा नहीं था कि पीछे कैसे-कैसे गुरू लोग बैठते हैं और वहां बैठकर वे क्या-क्या करते हैं। इनमें से ज्यादातर इसी कक्षा में एक या दो साल का रियाज कर चुके थे और गौकरन पंडी जी के डंडों का इन्हें कोई डर नहीं था। एक दिन तो हालत यह हो गई कि जब पंडी जी क्लास में घुसे तो एक भाई ने डेस्क के पीछे सिर देकर नारा सा लगाते हुए कहा- आ गए महाराजा रणजीत सिंह, जरा कोई इन्हें मूली तो खिलाओ।

गौकरन पंडी जी द्वारा दी गई हिंदी की अनमोल शिक्षाओं में एक त्रिभंगीलाल से संबंधित है। बिहारी का एक दोहा पढ़ाने के क्रम में उन्होंने त्रिभंगीलाल का अर्थ समझाते हुए ब्लैकबोर्ड पर बाकायदा ज्योमेट्री का एक डायग्राम बना दिया। सिर और धड़ के बीच का कोण लगभग 120 डिग्री और कमर जांघों के साथ 160 डिग्री का टेढ़ लिए हुए। बीच में जो भी छात्र जम्हाई लेता हुआ पकड़ा गया वह या तो बेंच पर खड़ा हो या फिर क्लास से बाहर जाए।

इसके समानांतर पंडी जी की यह आत्म-प्रशस्ति भी चलती रहती कि 'पढ़ लो बेटा पढ़ लो, आगे फिर कोई हमारे जैसा हिंदी पढ़ाने वाला नहीं मिलेगा।' ब्लैकबोर्ड पर बनी रेखाकृति देखकर अचरज होता था कि अंधे सूरदास ने अपनी कविता में आखिर सिर्फ एक शब्द से चांदे-परकार से नपी हुई ऐसी ज्योमेट्री कैसे बना दी होगी, जिसका खाका यहां इतनी मुश्किल से पंडी जी खींच रहे हैं। उधर अगल-बगल बैठे पुराने रियाजी इस आकृति के गूढ़ार्थ निकालने में जुटे रहते, जिसका पता अगर पंडी जी को लग जाता तो वे शायद मेरी जान ही ले लेते।

सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, बिहारी, नरोत्तम दास और फिर पंत, प्रसाद, निराला, महादेवी के गौरव में खोई हुई हिंदी की किताब के अंत में थोड़ी जगह अज्ञेय, मुक्तिबोध और नागार्जुन जैसे नए कवियों के लिए भी निकाली गई थी, जिन्हें पढ़ाने में गौकरन पंडी जी को शायद कुछ परेशानी होती थी। बाद में जाना कि छायावाद पार कर लेने के बाद गाड़ी दौड़ा देने का रिवाज हिंदी के गुरुजन हर स्कूल में निभाते हैं, लेकिन उस समय तक यह बात पता नहीं थी।

गौकरन पंडी जी कहते थे कि 'इसमें पढ़ाने को क्या है- छिपकली दीवार पर रेंग रही है, धीरे-धीरे-धीरे। अरे, यह तो सारा गद्य जैसा ही है, उठाके पढ़ लो। जो समझ में न आए वह पूछ लो।' लिहाजा होता यह कि एक लड़का खड़ा होकर अज्ञेय, मुक्तिबोध या नागार्जुन को बांचता और पंडी जी अपनी कुर्सी पर आंखें मूंदे मूंड़ हिलाते रहते।

एक दिन नागार्जुन की कविता बांची जा रही थी- ...विश्वास सर्वहारा का तुमने खोया तो/ आसन्न मौत की गहन गोंस गड़ जाएगी/ यदि बांध बांधने से पहले जल सूख गया/ धरती की छाती में दरार पड़ जाएगी... ।

'पंडी जी सर्वहारा माने क्या?' एक बच्चे ने अचानक बीच में खड़े होकर सवाल किया तो पंडी जी बिल्कुल सकपका गये। कुछ देर हूल-पैंतरा देकर मामले को टालने की कोशिश की, फिर बोले- 'सर्वहारा माने सबको हर लेने वाला, सबकुछ हर लेने वाला। और यह काम कौन करता है?' फिर अपने ही सवाल का सांकेतिक जवाब देते हुए उन्होंने दाएं हाथ की तर्जनी उंगली ऊपर की तरफ उठा दी।

अर्थ बताया, ' अरे, कवि क्या कह रहा है? कवि कह रहा है कि उस परब्ब्रम्ह परमेश्वर का ही विश्वास तुमने खो दिया तो फिर क्या होगा? 'आसन्न मौत की गहन गोंस गड़ जाएगी'। यानी? अरे राम नाम सत्य हो जाएगा, और क्या?'

पंडी जी का बताया हुआ सर्वहारा शब्द का यही अर्थ सात-आठ साल बाद तक मन में मजबूती से जमा रहा। फिर इलाहाबाद में मार्क्सवाद के संपर्क में आने के बाद किताबों में बार-बार सर्वहारा देखकर चौंका कि भगवान यहां क्या कर रहे हैं, यहां तो कोई भूले से उनका जिक्र करने वाला भी नहीं है। पता चला कि इसका मतलब मजदूर होता है, ऐसा मजदूर जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं- सिर्फ अपनी जंजीरें हों और पाने के लिए पूरी दुनिया हो।

हाई स्कूल पास करने के बाद मुझे दो साल विषय के रूप में हिंदी और पढ़नी पड़ी और उसका तजुर्बा भी कुछ खास अच्छा नहीं रहा। फिर भी गनीमत रही कि स्कूल बदल जाने के कारण यह काम गौकरन पंडी जी वाली धौंक में नहीं करना पड़ा। यहां गुरूजी लोग भी पीछे बैठने वाले तजुर्बेकार छात्रों जितने ही, बल्कि उनसे भी ज्यादा गुरू थे।

सूरकाव्य में 'कंचुकि पट सूखत नहिं कबहूं ' आते ही कक्षा में अभूतपूर्व उत्साह देखने को मिलता- 'साहब, कंचुकी माने क्या?' 'साहब, उर्र माने क्या?' गुरुजनों के पास इनके एक से एक रसीले जवाब होते, जिनसे नए-नए सवालों की सृष्टि भी होती चलती। अलबत्ता पुराने स्कूल की सख्ती और नए स्कूल की मस्ती, दोनों का ही नतीजा मेरे लिए कुल मिलाकर एक जैसा ही निकला। हिंदी में अच्छे नंबर मेरे न तो हाई स्कूल में आए, न इंटरमीडिएट में। अगले साल की पढ़ाई में इस भीषण विषय का साथ जब हमेशा के लिए छूट गया तो भीतर से राहत की एक लंबी सांस निकली।

4 comments:

अनामदास said...

गौकरन जी जैसे मास्टरों के बारे बहुत लिखे जाने की ज़रूरत है, अभी उनका सही मूल्यांकन होना बाकी है. मज़ेदार है.
अनामदास

अनूप शुक्ल said...

बढ़िया है।

सफ़र said...

गौरकन गुरुजी नियर हमरो ेगो मास्‍साब रहस, हरि पंडिजी। दु-ढाी मीटर के छौंकी हमेशा साथ रखस। जानकारी जे रहल होखे, लिखावट पर ख़ूब ध्‍यान रखस। मजाल केकरो कि टेढ़-मेढ़ लिख दे कापी पर। ानामदासजी के बात ठीक ह … तमाम गौरकनजी के याद करे के चाहिं। नतीजा मज़ेदार रही।

raj said...

आपका कविता "गौकरन पंडी जी का हिंदी सेवन" बढ़िया है। पर है एक महान प्रतिभा
मे भी ऐसा blog शुरू करना चाहता हू
आप कोंसी software उपयोग किया
मुजको www.quillpad.in/hindi अच्छा लगा
आप english मे करेगा तो hindi मे लिपि आएगी