खुश रहो, खुशी का समय है
शाम को दफ्तर से घर लौटो तो
खुशी की कोई न कोई खबर
तुम्हारा इंतजार कर रही होती है।
तुम्हारे साढ़ू ने बंगला डाल लिया
एनजीओ में काम कर रही तुम्हारी सलहज
रात की फ्लाइट से अमरीका निकल रही है
पड़ोस के पिंटू ने लाख रुपये में इन्फोसिस पकड़ ली
शर्मा जी को मिल गया इतना इन्क्रीमेंट
जितनी तुम्हारी कुल तनखा भी नहीं है।
बेहतर होगा, इसी खुशी में झूमते हुए उठो
और निकल लो किसी दोस्त के घर
वहां वह अपना कल ही जमाया गया
होम थियेटर रिमोट घुमा-घुमाकर दिखाता है
फिर महीना भर पहले ली हुई लंबी गाड़ी में
थोड़ी दूर घुमा लाने की पेशकश करता है
लौटकर उसके साथ चाय पीने बैठो
तो लगता है कृष्ण के दर पर बैठे सुदामा
तंडुल नहीं धान चबा रहे हैं।
छुट्टियों के नाम पर झिकझिक से बचने
किसी रिश्तेदारी में चले जाओ
तो लोगबाग हाल-चाल बाद में पगार पहले पूछते हैं
सही बताओ तो च्च..च्च करते हैं
बढ़ाकर बताओ तो ऐसे सोंठ हो जाते हैं
कि पल भर रुकने का दिल नहीं करता।
दरवाजे पर खड़े कार धुलवाते
मोहल्ले के किसी अनजान आदमी को भी
भूले से नमस्ते कर दो तो छूटते ही कहता है-
भाई साहब, अब आप भी ले ही डालो
थोड़ी अकड़ जुटाकर कहो कि क्यों खरीदूं कार
जब काम मेरा स्कूटर से चल जाता है
तो खुशी से मुस्कुराते हुए कहता है-
हां जी, हर काम औकात देखकर ही करना चाहिए।
...और औकात दिखाने के लिए
उतनी ही खुशी में ईंटा उठाकर
उसकी गाड़ी के अगले शीशे पर दे मारो
तो पहले थाने फिर पागलखाने
पहुंचने का इंतजाम पक्का।
खुशी का समय है
लेकिन तभी तक, जब अपनी खुशी का
न कुछ करो न कुछ कहो
मर्जी का कुछ भी निकल जाए मुंह से
तो लोग कहते हैं-
अच्छे-भले आदमी हो
खुशी के मौके पर
ऐसी सिड़ी बातें क्यों करते हो?
4 comments:
बहुत उम्दा कविता है। पढ़कर जी खुश हो गया।
खुशी का समय है
लेकिन तभी तक, जब अपनी खुशी का
न कुछ करो न कुछ कहो
सही है.
अच्छी कविता है.
सब खुश हैं, सब सुखी हैं, सर्वे भवंतु सुखिनः वाली बात आज जाकर फली है. आनंद ही आनंद है, दूध धी की नदियाँ बह रही हैं, मॉल है उसमें माल है, घरों में टकसाल है. आप और हम बेवजह दूसरों के सुख देखकर दुखी हो रहे हैं, जलनखोर किस्म के लोग हैं हम, अरे, मेहनत करिए, अक्ल लगाइए और सुखी बन जाइए. टाइम मिलते ही कमाई के बदले कविता उविता सोचिएगा तो यही हाल होगा...
सही है..
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