अविनाश जी द्वारा अरुंधति राय के उद्धरण के हवाले से शुरू की गई बहस में शामिल होते हुए कुछ बातें कहना चाहता हूं- कोई नई बहस शुरू करने के लिए नहीं, अपना मंतव्य स्पष्ट करने के लिए। जब हम लोग जनमत निकाल रहे थे, 1995 में मैंने चरार-शरीफ कांड पर एक रिपोर्ट लिखी थी। वह आंखों देखी रिपोर्ट नहीं थी क्योंकि हम जम्मू पहुंचे और उधर कांड हो गया। रिपोर्ट के जवाब में हमारे पास कश्मीर से दो पत्र आए, एक श्रीनगर से संजना कौल का और दूसरा जम्मू से अग्निशेखर का। इनमें से संजना का पत्र हमने छापा और उसके बगल में अपने नाम से मैंने इसका जवाब दिया। अग्निशेखर का पत्र बहुत लंबा था- 19 पेज का, और काफी लोडेड था- मेरे ऊपर व्यक्तिगत आक्षेप लगाते हुए (अब लगता है कि उनमें कुछेक सही भी थे)। पुख्ता वाम-लोकतांत्रिक पहचान संजना के परिवार की खासियत रही है। राष्ट्रीयता के लेनिनवादी सिद्धांत का अनुसरण करते हुए उनके पिता ने 1947 में कश्मीर के पाकिस्तान में विलय का समर्थन किया था। अपने पत्र में संजना ने अपने हृदय का सारा दुख उड़ेल दिया था कि कैसे धीरे-धीरे करके उनका युनिवर्सिटी में पढ़ाना मुश्किल होता चला गया और अपने ही घर में वे कैसे अकेली और असुरक्षित हो गई थीं। अस्सी के दशक में शेख अब्दुल्ला सरकार के खिलाफ बना माहौल सचेत ढंग से इस्लामी नारों की तरफ मोड़ दिया गया और मामला आजादी से आगे बढ़कर आजादी का मतलब बताने तक पहुंच गया- 'आजादी का मतलब क्या ला इलाह इलल्लाह।' यानी जो इस्लामी कश्मीर, या पाकिस्तान में कश्मीर के विलय का पक्षधर न हो, उसका कश्मीर की आजादी से कुछ भी लेना-देना नहीं है। फिर नब्बे के दशक की शुरुआत में जगमोहन की गवर्नरी में आतंकवाद को ठिकाने लगाने की जो डेस्परेट कोशिशें शुरू हुईं, उनका अंत पूरी घाटी से हिंदुओं के सफाए के रूप में हुआ। इसके बावजूद संजना श्रीनगर में ही डटी रहीं, और शायद आज भी वहीं हैं।
राष्ट्रवादी नारों के तहत किए जाने वाले पुलिसिया और फौजी दमन का शिकार हो चुके नक्सल आंदोलन के एक कार्यकर्ता के रूप में मेरी संवेदना जम्मू-कश्मीर में संघर्षरत आजादी समर्थक शक्तियों के साथ थी और कुछ हद तक यह आज भी है। लेकिन मोदी के गुजरात में एक मुसलमान की और लश्करे तैयबा जैसी ताकतों के दबदबे वाले कश्मीर में एक हिंदू की स्थिति के बारे में एक कार्यकर्ता को जितना संवेदनशील होना चाहिए, उस संवेदना का मुझमें अभाव था। नतीजा यह हुआ कि संजना के पत्र का जवाब मैंने लगभग झिड़की के अंदाज में दिया, जिसका आज तक मुझे अफसोस है। यह सही है कि कार्यकर्ता वाली वह तुर्शी आज मुझमें नहीं बची है, जिसके अपने कुछ बड़े नुकसान भी हैं लेकिन संतोष की बात है कि मेरे परिचितों-मित्रों में आज कश्मीरी हिंदू और मुसलमान दोनों ही शामिल हैं, जिनकी मदद से अंधराष्ट्रवादी सोच जैसी वैचारिक बीमारियों से ग्रस्त हो जाने की नियति से मैं एक हद तक बच सका हूं। आज पूरी शिद्दत से मेरा मानना है कि शेष भारत के तमाम लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को कश्मीरी बौद्धिकों के साथ मिलकर वहां की अवाम के साथ खड़ा होना चाहिए और इस प्रक्रिया को कश्मीर के दोनों हिस्सों में फैलाने का प्रयास करना चाहिए। दो देशों की राजनीति में मोहरा बने इस क्षेत्र की लाखों जिंदगियां अकारण तबाह हो चुकी हैं। अगर हम कश्मीरी अवाम- चाहे वह मुस्लिम हो या हिंदू- के दुख-सुख में हिस्सेदारी नहीं कर सकते तो हमें कश्मीर का नाम लेने का भी कोई हक नहीं है। लोगों को आतंकवादियों से बचाने के लिए फौज और फिर फौज से लोगों के जान-माल, इज्जत-आबरू की रक्षा के लिए आतंकवादी- इस आत्मघाती दुष्चक्र ने कश्मीर को तबाह करके रख दिया है। इस मामले में अरुंधति राय के साथ अगर मेरी कोई बहस है तो सिर्फ यह कि 'कश्मीर कभी भारत का अंग नहीं रहा' या 'इराक में अमेरिकी फौजों से ज्यादा कश्मीर में भारतीय फौजें लगी हैं' जैसे आसान तर्कों का सहारा लेकर वे पूरे भारत को आरएसएस के खेमे में ढकेल देने का उद्यम न करें। ये दोनों तथ्य एक उलझी हुई ऐतिहासिक नियति की ओर संकेत करते हैं और विराट जनसमुदायों की साझा नियति से युद्ध लड़ना इतना आसान काम नहीं है, जिसे कुछ सोंधे-कुरकुरे तर्कों से निपटाया जा सके। मैं इसे असंभव नहीं, केवल एक श्रमसाध्य और दीर्घकालिक काम बता रहा हूं। मसलन, एक छोटे से काम से हम शुरुआत कर सकते हैं। क्या हमारे बीच से कोई मित्र कश्मीरी लोगों के साथ संवाद या भावनात्मक साझेदारी का कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष जरिया तलाशने की पहल कर सकता है?
3 comments:
आपकी सोच की स्पष्टता,आपकी समझदारी और बीते अनुभवों के प्रकाश में किए गए आपके इस आत्मीय विश्लेषण से बेहद प्रभावित हूं .
बढि़या लिखा चन्दू भाई..
और ऐसा भी नहीं है कि भारतीय फ़ौजो के वहाँ से हटते ही वहाँ लोकतंत्र स्थापित हो जायेगा.. जटिल सवाल है .. मैं खुद इस मामले में कोई स्पष्ट राय नहीं बना पाया हूँ..
मेरे कुछ कश्मीरी पंडित मित्र हैं.. वे वापस जाना चाहते हैं.. पर नहीं जा सकते.. डर के भागे थे.. क्योंकि माहौल ये था कि मर्दों को मार दो और औरतों को रख लो.. इसके बावजूद वे कश्मीरी मुसल्मानों को गालियाँ नहीं देते.. पर हो सकता है कि उनकी कहानी सुनने वाले कश्मीरी मुसल्मानों के बारे में एक खास राय बना लें.. समूचेपन के अभाव में..मुख्य बात यही है कि हम अधकचरे ज्ञान और अधकचरेपन में ही सब कुछ परिभाषित कर लेना चाहते हैं..
एक बात बताइए चंदू भाई कि पूरा देश और कश्मीर हमारे राष्ट्र राज्य के लिए क्या महज एक ही संदर्भ है? कश्मीर के साथ हमारे मुल्क के बर्ताव पर आपको ढंग से लिखना चाहिए। अब जैसा कि अभय जी की टिप्पणी से ज़ाहिर होता है, ज्यादतियों के बावजूद (मानो वहां आम कश्मीरी मुसलमान पंडितों से नफ़रत करते हैं और इस नफ़रत के बीज वहां गांव-गांव में बोये हुए हैं) कश्मीरी पंडित अपनी मिट्टी पर लौटना चाहते हैं- मुसलमानों को गालियां नहीं देते। भाई, आम मुसलमान भी आम हिंदुओं की तरह किसी कट्टर कौमी विचार से भर सकता है और गुजरात जैसे हादसों में एक खास के कौम के लोगों को ठिकाने लगा सकता है। लेकिन इस मुल्क के पूरे मुसलमानों की नियति को क्या सचमुच कश्मीरी पंडितों की नियति के साथ एक ही तराजू पर तौला जाना चाहिए, चंदू भाई? मैं सिर्फ अपनी समझ साफ करने के लिए आपसे ये सब पूछ रहा हूं। कोई हेठी न समझ लीजिएगा।
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