Sunday, May 20, 2007

अनदेखी अनचुभी शक की सुई

-14 अप्रैल 2006, दिल्ली की जामा मस्जिद में बम विस्फोट, दो देसी बम फटे, कुछ लोग घायल हुए, थोड़ी सनसनी मची, किस्सा खत्म हो गया।
- 8 सितंबर, 2006, मालेगांव की मस्जिद में देसी ढंग के टाइमर वाला आरडीएक्स बम फटा, एक जिंदा बम बरामद, 34 लोगों की मौत।
-18 मई, 2007, हैदराबाद की मक्का मस्जिद में मोबाइल फोन से संचालित ऐडवांस टाइमर वाला आरडीएक्स बम फटा, 9 लोग मरे, पुलिस से भिड़ंत में फिर 5 लोग और मरे।

तीन कांग्रेस शासित राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश की कुछ प्रमुख मस्जिदों में तकरीबन छह-छह महीनों के अंतर से विस्फोट- लगातार परिष्कृत रूप लेते हुए। हर बार जांच के दौरान पुलिस का पिटा हुआ रवैया। वही पाकिस्तान का हाथ, आईएसआई और आतंकवादी संगठनों द्वारा सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने की साजिश आदि वाले जुमले और फिर एक-दो प्रेस कॉन्फ्रेंस करके चद्दर तानकर सो जाना।

आखिर पुलिस किसी मुस्लिम विरोधी आतंकवादी संगठन के बारे में अपना कोई कयास तक जाहिर क्यों नहीं कर रही है? क्या इस देश में ऐसे लोगों और संगठनों की कोई कमी है, जो देश में हुई किसी भी दहशतगर्द कार्रवाई की सजा आम मुसलमानों को देने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं?

गौरतलब है कि इससे पहले कुछ-कुछ महीनों के अंतर पर दो हिंदू उपासना स्थलों बनारस के संकटमोचन मंदिर (7 मार्च 2006) और अयोध्या के विवादित स्थल (5 जुलाई 2005) पर भी आतंकवादी हमले हो चुके हैं। उनके पीछे मौजूद 'सांप्रदायिक सौहार्द्र बिगाड़ने की साजिश' वाले पुलिसिया तर्क को लगातार लंबा-लंबा खींचा जा रहा है। कभी किसी सिम कार्ड को तो कभी किसी और चीज को आधार बनाकर पुलिस अपनी दलील घिसे जा रही है। समझ में नहीं आता कि जो व्यक्ति या गुट दस-बीस लोगों की हत्या में गुरेज नहीं करता वह पांच सौ रुपये का सिमकार्ड बिलाल या मतीन जैसे किसी फर्जी मुस्लिम नाम से क्यों नहीं बनवा सकता?

जुमे की नमाज के वक्त बम फोड़ने वाले इन दरिंदों की तलाश करना अगर पुलिस और सरकार के वश की बात नहीं है तो वह न करे, लेकिन टीवी कैमरों के सामने व्यर्थ की बयानबाजी करने के बाद दस-बीस मुस्लिम नौजवानों की पकड़-धकड़ करना, मार-मारकर उनकी जिंदगी तबाह कर देना और हमेशा के लिए उन्हें अपराध या आतंकवाद की राह पर धकेल देना- इस नाम पर कि उन्होंने जुमे की नमाज के वक्त अपने ही भाई या बाप जैसे लोगों की हत्या की है- यह कहां का न्याय है?

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी जानकारी दी है।

अभय तिवारी said...

बहुत सही.. इस विषय पर अच्छे अच्छे लोगों में भ्रांति की परतें छिपी नज़र आ जाती है..

लाल बहादुर ओझा said...

यह आंखे खोलने वाले पहलू हैं। गुजरात में वंजारा मामले का गुब्‍बारा बनता तब तक चंद्रमोहन की तरफ चर्चा मुड़ गयी। इस खेल में अपने राजनेता पके हुए हैं और मीडिया को इस्‍तेमाल हो जाने में कोई गुंरेज नहीं है।