अब से करीब बीस साल पहले 1986 में छात्र पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के लिए चंदा मांगने प्रसिद्ध कहानीकार शैलेश मटियानी के घर गया था। उस समय तक वे वैचारिक रूप से भाजपाई नहीं हुए थे, हालांकि वाम विरोध का एक मजबूत तत्व उस समय भी उनकी सोच में मौजूद था। कद-काठी से उन्हें स्थूलकाय कहा जा सकता था और बातचीत के दौरान वे काफी हिल-हिलकर हंसते थे। उनकी बातों में ब्योरों को लेकर जबर्दस्त आग्रह मौजूद था, जो कि हर अच्छे साहित्यकार की खासियत होती है।
मटियानी जी का जीवन एक गरीब पहाड़ी लड़के द्वारा अस्तित्व के लिए किए गए भीषण संघर्ष का नमूना था, जिसकी झलक उनके साहित्य में देखी जा सकती थी। लेकिन उनके असली संघर्षों का दौर तो अभी शुरू भी नहीं हुआ था। बेटे की हत्या, जीवन भर की कमाई से इलाहाबाद में खरीदे गए एक घर पर दूसरे लोगों का कब्जा हो जाना, पैसे के अभाव में बेटियों की शादी न हो पाना जैसी भीषण वारदातें अभी उनके जीवन में घटित होने वाली थीं और इन सारे तनावों से गुजरते हुए वर्षों की विक्षिप्तता के बाद अंततः दिल्ली के एक मनोरोग अस्पताल में मृत्यु भी अभी काफी दूर की बात थी।
उस रात मटियानी जी हमसे काफी देर तक बात करते रहे। बाद में हमें लगा कि पचास रूपये चंदे के वायदे पर करीब तीन घंटों की बर्बादी बहुत घाटे का सौदा है। लेकिन बड़े लोगों से बात करने का एक अपना अलग मतलब होता है, जिसका पता अक्सर बाद में चलता है। मटियानी जी इस पूरे समय अपने संघर्षों के बारे में ही बताते रहे, जो जमीन से उठे हर आदमी की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।
उन्होंने कहा, 'बंबई में एक दिन लंबी कड़की से तंग आकर मैंने आत्महत्या करने की सोची, लेकिन उसी उधेड़बुन में याद पड़ा कि ऐसा ही ख्याल सीता की खोज में निकले हनुमान के मन में भी आया था। वाल्मीकि रामायण मेरे पास थी। वह अंश दुबारा पढ़ा और चकित रह गया कि वाल्मीकि नाम के इस आदमी ने हजारों साल पहले मेरे मन में कैसे झांक लिया। हनुमान उस प्रसंग में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि मृत्यु निश्चित है- चाहे वह आत्मघात से हो या क्रुद्ध लक्ष्मण के हाथों- तो फिर एक प्रयास और क्यों न करके देखा जाए। वजह वाल्मीकि रहे हों या कुछ और, लेकिन मैंने भी एक कोशिश और करने की ठानी...'
मटियानी जी ने उसी बातचीत में यह भी कहा था कि 'मुझे तो अपनी रोटी अपनी कलम से निकलती दिखाई देती है। इतने साल की कोशिशों के बाद मैंने इसे साध लिया है। ऐसा कोई भी लेखन अब मैं नहीं कर सकता, जिसके एवज में मुझे पैसे न मिलें। वामपंथी कवियों-लेखकों की मुझसे नाराजगी की सबसे बड़ी वजह यही है कि जो पत्रिकाएं वे निकालते हैं उनमें लोगों से मुफ्त लिखने की अपेक्षा करते हैं। मेरे जैसे कुलवक्ती लेखकों के लिए यह भला कैसे संभव है?'
उस समय मटियानी जी के इस आग्रह से हमें जुगुप्सा सी हुई थी। कैसा आदमी है जो शब्द बेचकर खाने की बात करता है! फिर ऐसी ही जुगुप्सा 1990 में रघुवीर सहाय से बात करते हुए हुई थी जब जनमत में लिखने के लिए उनसे कहने गया था और उन्होंने सबसे पहले यह साफ करने को कहा था कि लिखने के एवज में उन्हें पैसे कितने मिलेंगे। इस बात का एहसास बहुत बाद में हुआ कि मटियानी जी और सहाय जी का आग्रह बिल्कुल नैतिक था और किसी भी समाज को अगर ढंग का लिखा हुआ कुछ पढ़ने के लिए चाहिए तो उसे लिखित शब्द की समुचित भरपाई का आदी होना पड़ेगा।
स्वाधीनता आंदोलन की सामाजिक ऊर्जा के बाद पैसे और आराम से जुड़ी सरकारी या युनिवर्सिटी की नौकरियों ने सत्तर के दशक तक अपना काम मेहनत और यथासंभव ईमानदारी से करने वाले हिंदी साहित्यकारों की एक पीढ़ी उपलब्ध कराई। कुछ मीडिया घरानों को भी तबतक ऐसा लगता था कि अपने ब्रांड के साथ हिंदी का कोई प्रोडक्ट जुड़ा होना गौरव की बात है और इससे आम जनता के बीच घराने का जनाधार कायम रहता है। इन्हीं दोनों चीजों के सहारे हम अज्ञेय, कमलेश्वर, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी, नामवर सिंह, फणीश्वर नाथ रेणु और धर्मवीर भारती जैसे बड़े साहित्यकारों के लिए समाज में एक गुंजाइश बनी बाते हैं, लेकिन ये दोनों ही अस्सी के दशक से बिखरनी शुरू हुईं और नब्बे के दशक में बिल्कुल साफ ही हो गईं।
कहने को आज टीवी के कई नामी ब्रांड हिंदी के हैं और सॉफ्टवेयर से लेकर दूसरी बड़ी-बड़ी नौकरियों में लगे हिंदी वाले ढंग का पैसा कमा रहे हैं। लेकिन यह सारा पैसा हिंदी में स्थायी महत्व के एक भी शब्द की रचना का बायस नहीं बन पा रहा है। साहित्य लिखने वालों में पैसे और पॉवर से जुड़े सरकारी अफसरों, सत्ता के दलालों और किसिम-किसिम के जुगाड़बाजों के नाम देखने को मिल जाते हैं। ये लोग ऐसे हैं, जो अपना लिखा छापने के एवज में किसी पत्र-पत्रिका का दो पैसे का भला कर सकते हैं या जरूरत पड़ने पर खुद अपनी पत्रिका भी निकाल सकते हैं। इन्हें मटियानी या नौकरी छूटने के बाद के रघुवीर सहाय की तरह अपने लिखे पर पैसे की कोई दरकार नहीं है।
मैं नहीं जानता कि हिंदी में साहित्य की दशा इतनी बुरी क्यों है और इसमें सुधार कैसे होगा, लेकिन इस भाषा में कलात्मक सृजन को लेकर मेरे समेत जो लोग भी चिंतित हैं, उनसे यह आग्रह जरूर करना चाहता हूं कि इस बारे में कुछ भी सोचने से पहले इसके वित्तीय पहलू के बारे में भी जरूर सोचें। उनका ऐसा सोचना कोई पतनशील या कलाविरोधी काम नहीं होगा। दरअसल इसके जरिए ही वे यह सुनिश्चित कर सकेंगे कि कोई सृजनात्मक कर्म निरंतरता में कितने समय तक जारी रह सकेगा। बहरहाल, ऐसा कहते हुए फिल्म या टीवी से जुड़ी किसी मौजूदा इंटरटेनमेंट कंपनी की तस्वीर मेरे जेहन में नहीं आती, क्योंकि इन्हें ध्यान में रखकर किसी कलात्मक सृजन की बात सोचना भी मुझे गुनाह लगता है।
किसी भी समाज को अगर ढंग का लिखा हुआ कुछ पढ़ने के लिए चाहिए तो उसे लिखित शब्द की समुचित भरपाई का आदी होना पड़ेगा।
ReplyDeleteयकीनन
अपनी मजदूरी न माँग पाने के कारण ही लेखक की छवि कुछ दाँत चियारे वाली हो गई है। आप एक दिहाड़ी मजदूर से कहि कि वह बिना मजदूरी के एक गड्ढा खोंद दे। आप को श्रम का भाव पता चल जाएगा। लोंगो को लगता है कि लिखने में कुछ जाता ही नहीं है।
ReplyDeleteस्याही से लेकर कागज़-कलम-डिजाइन कुछ भी मुफ़्त नहीं है. मुफ़्त है सिर्फ लेखक की मजदूरी. इसके लिए लेखक भी कम जिम्मेदार नहीं है. लोग लिखते ही क्यों हैं भाई बिना पैसे के? जिन वैचारिक आग्रहों की बात हम करते हैं उनसे ही कुछ लोग ओवरवेत हुए जा रहे हैं. सारी लग्ज़री बटोर रहे हैं और लेखक दरिद्र. यह कब तक चलेगा? कहीँ न कहीँ लेखक की कमजोरी भी जिम्मेदार है.
ReplyDeleteआपके आलेख ने बरबस मटियानी जी की याद ताजा कर दी। उनके अंतिम वर्षों के दरम्यान मुझे कुछ समय हल्द्वानी में उनके पड़ोस में रहने का सौभाग्य मिला। तब तक उनकी बीमारी जानलेवा बन चुकी थी, बावजूद इसके वह बीच-बीच में जब कभी बेहतर महसूस करते, लिखते रहते थे। इसी दौरान `पहाड´़ पत्रिका ने अपने शैलेश मटियानी अंक की योजना बनाई और इस सिलसिले में उनके जीवनवृत्त और उनकी कहानियों को दोबारा पढ़ने का मौका मिला। मटियानी जी के बचपन को हिन्दी जगत जरूरत से ज्यादा `भयावह´ बनाकर पेश करता रहा है( जबकि वह अपने पीढ़ी के अधिकतर पहाड़ी बालकों के बनिस्बत `खाते-पीते´ व कस्बाई परिवेश में पले-बढ़े थे। लेखक बनने की जिद के कारण उन्होंने आरामतलब जीवन के तमाम अवसरों को ठुकराया और अपेक्षाकृत मजे में कट रही जिंदगी को छोड़कर गरीबी का व्यक्तिगत अनुभव लेने बंबई चले आए। `दो दुखों का एक सुख´ जैसी उनकी कहानियों को पढ़कर मुझे हमेशा यह लगता रहा है कि मटियानी हिन्दी के सर्वकालिक शीर्षस्थ कथाकारों में एक हैं( हालांकि हिन्दी के खेमेदार उनके साहित्य के बजाय उनकी वैचारिक हिलोरों पर ही गरजते-बरसते रहे। बहरहाल, मटियानी जी के बहाने आपने (हिन्दी) लेखक की मजदूरी का जो सवाल उठाया, वह निहायत प्रासंगिक और काबिले गौर है।
ReplyDeleteकभी आपने सोचा कि शैलेश मटियानी की मौत गरीबी और विक्षिप्तता मे इसलिये हुई क्योकि वे ब्राह्मण नही थे ? फिर भी हिन्दी के लेखक बनने का सपना देख रहे थे ! वैसे आप किस जात के है और आपकी सैलरी कितनी है ?
ReplyDeleteनीरज पासवान