Saturday, April 19, 2008

तीन गाड़ियां दो मकान (नेपाल डायरी-5)

कुछ बातों पर आप कभी यकीन नहीं कर पाते। यूं कहें कि उनपर यकीन करने का जी नहीं होता। आपके मन में उनके घटित हो जाने का भय कहीं गहरे दबा होता है। यहां तक कि दिन में हजार बार उनके बारे में बात भी करते हैं। फिर भी जब उनके हो जाने की सूचना मिलती है तो इस सूचना से नजरें चुराने की कोशिश करते हैं, इससे बच निकलने की सुरंगें ढूंढते हैं, यहां तक कि सूचना लाने वाले को ही खलनायक बना डालते हैं।

उषा तिवारी (जो अब उषा तितिक्षु बन चुकी हैं) नेपाल में 1990 के लोकतांत्रिक जन-विप्लव की संतान हैं। वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति की फोटोग्राफर हैं। देश-विदेश में अपनी फोटो प्रदर्शनियां लगा चुकी हैं। नेपाल की तराई के एक प्रतिष्ठित परिवार से आती हैं लेकिन हाल-हाल तक अपना आधा समय काठमांडू में और आधा भारत के तमाम शहरों में भटकती हुई गुजारती रही हैं। 1991 की मेरी नेपाल यात्रा के चार-एक साल बाद जब उन्होंने नेपाल के कम्युनिस्ट नेताओं के विचलन और पतन के किस्से बयान करने शुरू हुए तो मुझे उनकी एक भी बात पर विश्वास नहीं हुआ।

मैंने कहा कॉ. मदन भंडारी तो अब रहे नहीं, लेकिन मुझे यकीन है कि दुनिया इधर से उधर हो जाए तो भी कॉ. मोदनाथ प्रश्रित जैसा कवि-राजनेता कभी भ्रष्ट नहीं हो सकता। उषा मुझसे उम्र में कम से कम दस साल छोटी होगी, लेकिन मेरी इस बात को उसने कुछ इस तरह हंसी में उड़ाया, जैसे उसके सामने मैं कोई छोटा सा बच्चा होऊं। 'किस दुनिया में हैं आप? जमीन पर आइए साथी, जमीन पर। मोदनाथ प्रश्रित के पास आज काठमांडू में दो मकान हैं, तीन जर्मन मेक की बड़ी गाड़ियां हैं। उनसे मिलने जाएं तो आसानी से आपकी बात नहीं हो पाएगी!'

मुझे पक्का लगा कि इस लड़की के रिश्ते अब एमाले के साथ अच्छे नहीं रह गए हैं, इसीलिए यह सब बोल रही है। तबतक नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी (एकीकृत मार्क्सवादी-लेनिनवादी) दो हिस्सों में बंट चुकी थी, लेकिन इस बंटवारे का आधार भी सैद्धांतिक नहीं, नेपाली कांग्रेस के किस गुट के साथ मिलकर सरकार बनाई जाए, या न बनाई जाए, किस्म का ही था। मैंने दूसरे गुट के नेताओं के नाम लेकर टोह लेनी चाही तो उनके बारे में भी उषा की राय उतनी ही कड़वी थी।

इसके कुछ समय बाद मैंने नेपाल पर लगातार नजर रखने वाले आनंद स्वरूप वर्मा जी से इस बारे में बात की- कुछ इस तरह, जैसे किसी गोपनीय चीज के बारे में बात कर रहा होऊं। वे भी उषा जितने ही तिरस्कार पूर्वक मुझपर हंसे- 'कितना बचकाना, सूचनाओं से किस कदर वंचित!'

उसी समय पहली बार उन्होंने मुझे नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के नीतिगत विमर्शों और रणनीतिक फैसलों के बारे में बताया। इससे जुड़े दस्तावेज पढ़ने को दिए। नेपाल में माओवादियों के सशस्त्र संघर्षों की खबरें उस समय तक आनी शुरू हो गई थीं , लेकिन जिस तरह मैं पीपुल्स वार और पार्टी यूनिटी (फिलहाल साथ मिलकर गठित भाकपा- माओवादी) की हथियारबंद लड़ाइयों के क्रांतिकारी महत्व को लेकर आज तक आश्वस्त नहीं हो पाया हूं, कुछ वैसा ही हाल तब से लेकर अभी दो-तीन साल पहले तक नेकपा-माओवादी को लेकर भी बना रह गया था।

अपनी इस वैचारिक और संवेदनात्मक जड़ता की कोई ठोस वजह मुझे समझ में नहीं आती। क्या अपनी पिछली चार पोस्टों में मैं लगातार नेकपा (एमाले) के वैचारिक विरोधाभासों और उन्हें लेकर अपने मन में पैदा होने वाले संदेहों का जिक्र नहीं करता आ रहा हूं? आप चाहें तो इसे मेरे अंदर लगातार दृढ़ होते जा रहे लिबरल पूर्वग्रहों का नतीजा बता सकते हैं, यहां तक इसे सवर्ण मध्यवर्गीय सोच की सामान्य परिणति भी कह सकते हैं। अगर आप ऐसा कहते हैं तो मैं एतराज नहीं करूंगा।

लेकिन मेरी केंद्रीय समस्या दूसरी है। नेकपा (एमाले) के जिन नेताओं, कार्यकर्ताओं और जनाधार के मुखर लोगों से मैं मिला, वे अपने समाज के सबसे आदर्शवादी, परिवर्तनकामी लोग थे। कम से कम उस समय तक तो भ्रष्टाचार और बेईमानी की कोई झलक उनमें नहीं देखी जा सकती थी। व्यवहार गणित का सीधा सा सवाल है- ऐसे मजबूत लोगों की चेतना और क्रांतिकारी संवेदना को क्षत-विक्षत करने में नेपाल के नवोदित लोकतंत्र को अगर सिर्फ चार साल लगे, तो नेकपा (माओवादी) या किसी भी क्रांतिकारी शक्ति को क्रांतिकारी बने रहने के लिए अपने मन में कितने साल का समय हम दे सकते हैं?

अपना मन रखने के लिए इस समस्या को मैं किसी कम्युनिस्ट पार्टी से ज्यादा एक गरीब-पिछड़े देश की विडंबना से जोड़कर देखता हूं। कोई बहुत बड़ा विश्वास टूटता है तब समाज में कोई गृहयुद्ध आकार लेता है। लेकिन पंद्रह हजार लोगों की जान लेने वाले, दस साल लंबे गृहयुद्ध से निकली माओवादी सरकार भी अगर अपने देशवासियों के भरोसे पर खरी नहीं उतरी तो गृहयुद्ध से भी बड़ा कोई अनर्थ नेपाल को झेलना पड़ सकता है। आशा है, कॉ. पुष्प कुमार दहल 'प्रचंड' , कॉ. बाबूराम भट्टराई, कॉ. मातृका यादव और अन्य शीर्ष माओवादी नेता अपनी इस ऐतिहासिक जिम्मेदारी को जरूरत से कुछ ज्यादा ही गंभीरता से लेंगे और मेरे जैसे बहुत सारे नेपाल हितैषियों की आशंका को गलत साबित करेंगे।

1991 में धादिङ से काठमांडू और फिर वहां से भारत वापसी की मेरी यात्रा के साथ भी कुछ यादगार व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव जुड़े हुए हैं। इनमें एक तो बिल्कुल मौत की कगार पर पहुंचकर वापस लौट आने का है। लेकिन अट्ठारह साल पुरानी एक यात्रा पर आधारित श्रृंखला की पांच कड़ियां सिलसिलेवार पढ़ा देने के बाद क्या मुझे इसमें एक और कड़ी जोड़कर आपके धीरज का इम्तहान लेने का कोई हक बनता है?

10 comments:

मैथिली गुप्त said...

बस सिर्फ एक और ही क्यों?
इस नेपाल डायरी को कम से कम दो अंकीय तो बनाईये.

वीरेन डंगवाल said...

zaroor!aur bhi kyon nahi.
viren

अनामदास said...

हम पढ़ रहे हैं भाई...लिखते जाइए.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आगे चलते जाइए अभी तो लगता है, कथा का प्रारंभ ही है।

अफ़लातून said...

लेखमाला चले । एक कड़ी आनन्द स्वरूप वर्मा के विश्लेषण पर भी हो । मेरा ख्याल है कि पत्रकार-इतिहासकार के अलावा कभी वे सी.एल आई(एम-एल)में रामनाथ उर्फ़ ओपी के साथी भी थे ?

Manas Path said...

नेपाल के बारे में जानकारी लिखतें रहे. जानकारी मिलती है.

आभा said...

खास डायरी पढना किसे अच्छा नहीं लगता फिर मै क्यों पीछे रहू , आप छापते जाइए हम बाचते जाते है

स्वप्नदर्शी said...

लिखते रहे, मुझे तो अभी रोचक लगनी शुरु हुयी है.

Unknown said...

लिखे रहें - दिलचस्प संस्मरणों के समय में पूरा हक बनता है - एक दिलचस्प बात और दिखी है कि हर झंडे की कहानी में कहीं न कहीं, घूम फिर कर साधन जुटाने का काम, बने रहने की कामना का मोटा तना बनता जाता है - देर सबेर हर संघर्ष की प्रक्रिया और परिणिति दोनों में अक्सर खटास जमती है - चाहे जीत कर जीते बने रहने की, या न जीत कर न जीत पाने की या अनिश्तित अंतराल में व्यवहार के रुक रुक कर टोकते रहने की - जिनके लिए नेतृत्व ज़रूरत है माध्यम नहीं उनके चित और पट दोनों में अपच रहेगी - maslowian hierarchy of needs का एक और साक्ष्य? - सादर मनीष [ सबके नामों की सड़के बनेंगी और जर्मन जापानी गाडियाँ वहीं दोडेंगी :-)]

Priyankar said...

पूरा हक है . लिखते रहिए . अगली कड़ी की प्रतीक्षा है .