Monday, March 3, 2008

भगदड़ का मनोविज्ञान

दंगों के 'फर्स्ट हैंड इक्सपीरिएंस' के लिए 1989 से 1992 तक का समय बड़ा मुफीद था। 1989 का तो खैर कोई जवाब ही नहीं है, जब कमोबेश देश की सारी ही पार्टियां बहती गंगा में हाथ धोने में जुटी थीं। हिंदू भावनाओं के दोहन के ख्याल से विराट राष्ट्रीय बहुमत वाली पार्टी कांग्रेस इसे कहीं सक्रिय तो कहीं निष्क्रिय समर्थन दिए हुए थी। भाजपा का प्रयास था कि यथासंभव उग्र हिंदू तेवर अपनाकर इस बार कांग्रेस को 1984 की तरह हिंदू भावनाएं भुनाने से रोक दिया जाए। नई-नई बनी पार्टी जनता दल को भी सत्ता में आने के लिए भाजपा का ही आसरा था, लिहाजा उसके नेता गली-गली चल रही सांप्रदायिक लहर को अनदेखा करते हुए हर जगह बोफोर्स ही बोफोर्स भजने में जुटे थे।

1989 के चुनाव में समकालीन जनमत की तरफ से एक विशेष साप्ताहिक चुनाव बुलेटिन निकाला जाना था, जिसकी रिपोर्टिंग के लिए मुझे भोजपुर और रोहतास की जिम्मेदारी मिली हुई थी। भोजपुर में अपना काम खत्म करके मैं रोहतास में इधर-उधर टहल रहा था। एक दिन शहर में सुबह से ही खबर गर्म थी कि आज तो सासाराम शहर में बहुत जबर्दस्त दंगा होगा। शेरशाह सूरी के जमाने से ही रोहतास में पठानों की जमींदारी चली आ रही है और रैयतों में सबसे बड़ी तादाद कोइरी (कुशवाहा) बिरादरी की है। उनके बीच का टकराव एक जमाने में कम्युनिस्ट आंदोलन की रीढ़ हुआ करता था, लेकिन 1989 में इसने शुद्ध सांप्रदायिक टकराव का रूप ले लिया था। लोग कह रहे थे कि फलां मठ पर आस-पास के इलाकों से बीस हजार लोग जमा हैं और आज तो खेल होकर रहेगा।

शहर का हाल लेने के लिए दोपहर में मैं आईपीएफ की एक प्रचार जीप पर टहल रहा था कि अचानक शहर के मुस्लिम इलाके की एक गली से निकलते ही सिर से पांव तक हथियारों से लैस एक ऐसे जुलूस से हो गया, जिसका आदि-अंत कुछ पता ही नहीं चल रहा था। आईपीएफ का चुनावी दफ्तर मुस्लिम इलाके में ही था लिहाजा हिंदू गोलबंदी से ज्यादा वाकफियत मुस्लिम जेहनियत से ही थी। लोग वहां बुरी तरह डरे हुए थे और झगड़े को किसी भी हद तक जाकर टालने का मन बनाए हुए थे- सारी दुकानें बंद कर दी जाएं, कोई सड़क पर टहलता हुआ न दिखे।

लेकिन ये सारे एहतियात धरे के धरे रह गए। जुलूस को आगे बढ़ाने के बजाय मुस्लिम इलाके में ही बाकायदा रोककर नारेबाजी शुरू कर दी गई। फिर एक धमाका सा हुआ। पता नहीं कैसे जुलूस में दो कंधों पर सवार एक स्ट्रेचर और उसपर लेटा हुआ आह-आह करता एक आदमी प्रकट हुआ। उसका पाजामा लाल-लाल हो रहा था, हालांकि ठीक से पता नहीं चल रहा था कि यह रंग खून का ही है, या किसी और चीज का। दोनों तरफ से होने वाली असली बमबाजी इसके बाद ही शुरू हुई।

एक अजनबी शहर में पहली बार आकर दंगे में फंस गए एक आदमी की जो हालत हो सकती है, वह मेरी थी। आईपीएफ की प्रचार गाड़ी तो बैक करते-करते एक गली में ले जाकर छोड़ दी गई और गाड़ी में सवार दो-तीन लोग उतरकर एक सुरक्षित कोने से दंगे का तमाशा देखने लगे।

इस दंगे की स्क्रिप्ट किसने लिखी थी, यह जानने का कोई तरीका नहीं था। अलबत्ता दो-तीन महीने बाद सासाराम जाने पर पता चला कि शहर की सीमाओं का ढांचा दंगे के बाद काफी कुछ बदल गया था। शेरशाह सूरी के जमाने से चले आ रहे रौजे जैसे ऐतिहासिक स्मारकों में हुई तोड़फोड़ उतनी भयानक नहीं थी, जितनी उस समय अखबारों से लगी थी लेकिन उनके आसपास रहने वाले गरीब मुसलमान वहां से उखड़कर इधर-उधर हो गए थे। कुछ लोगों को इससे जमीन का फायदा हुआ, लेकिन सबसे खास बात यह हुई कि सासाराम शहर के सत्ता समीकरण में दबंग पठानों का दखल नगण्य होकर रह गया।

आम आदमी का ढुलमुलपन देखने का भी अद्भुत मौका इस दंगे के दौरान मिला, जिसका कुछ फायदा 1992 में आरा में संभावित दंगा रोकने में उठाया गया। इसके लिए आपको कई स्तरों पर रणनीति बनानी पड़ती है। पटकथा लेखकों के लिए अलग, हार्डकोर दंगाइयों के लिए अलग, अफवाहबाजों के लिए अलग और आम लोगों के लिए अलग। एक पूरे शहर के अंदर इनमें पहली वाली श्रेणी में बमुश्किल दो-तीन राजनीतिक सफेदपोश, दूसरी वाली में दस-बीस गुंडे और तीसरी वाली में दुकानदार और वकील किस्म के लगभग इतने ही लोग शामिल होते हैं।

सबसे मुश्किल होता है आम लोगों से निपटना, क्योंकि दहशत में वे दंगाइयों से ज्यादा दंगाई और अफवाहबाजों से ज्यादा अफवाहबाज बन जाते हैं। उत्तेजना के नशे जैसी एक विचित्र चीज उनकी जेहनियत में सक्रिय देखी जाती है। मामले का ठंडा पड़ना वे बर्दाश्त नहीं कर पाते, उसे और-और बढ़ाने का हर संभव उपाय करते नजर आते हैं। ऐसे विवेकवान लोगों का अचानक ही टोटा पड़ जाता है जो सड़क पर अफवाहबाजी करते लोगों से कहें कि खेल खतम हुआ, अब चलो, घर जाकर सो जाओ।

बाद में कमोबेश दंगों जैसी ही भगदड़ शेयर बाजार और ब्लॉगोस्फेयर जैसी अपेक्षाकृत अमूर्त जगहों पर भी देखने को मिली। मेरे ख्याल से इस बारे में कुछ व्यवस्थित काम किया जाना चाहिए कि पैनिक सिचुएशंस में लोग कैसे व्यवहार करते हैं और ऐसे समय में उन्हें विवेकी-तर्कशील बनाए रखने के लिए क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं। मकसद आज इसी बारे में कुछ लिखने का था, लेकिन संदर्भित चीजें अभी इतनी ठोस हैं कि बहकती बात को फिलहाल बहकते चले जाने देना ही ठीक लगा।

2 comments:

Udan Tashtari said...

आपसे पूर्णतः सहमत..

सबसे मुश्किल होता है आम लोगों से निपटना, क्योंकि दहशत में वे दंगाइयों से ज्यादा दंगाई और अफवाहबाजों से ज्यादा अफवाहबाज बन जाते हैं।

..उपसंहार भी एकदम सटीक.

Unknown said...

थोड़ा बहके नही तो चले क्या; और चले तो थोड़ा बह्केंगे - तांगे के घोड़े की लीक और मदांध गजराज के उत्पात के बीच बहुत बहकने का इस्कोप है - लेकिन भीड़ को ये बात कौन समझा सकता है ?