tag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post3220268004076709450..comments2023-11-02T04:01:12.182-07:00Comments on पहलू: कोलाहल में कविताचंद्रभूषणhttp://www.blogger.com/profile/11191795645421335349noreply@blogger.comBlogger6125tag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post-56343743440471538662018-09-13T18:52:57.268-07:002018-09-13T18:52:57.268-07:00आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में"...<i><b> आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 15 सितम्बर 2018 को लिंक की जाएगी ....<a href="http://halchalwith5links.blogspot.in" rel="nofollow">http://halchalwith5links.blogspot.in </a>पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!</b></i>विभा रानी श्रीवास्तवhttps://www.blogger.com/profile/01333560127111489111noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post-87900764041846773582007-08-26T09:07:00.000-07:002007-08-26T09:07:00.000-07:00पूरा पढ़ गया.अच्छा लगा कि तुमने मेरी सलाह पढ़कर ले...पूरा पढ़ गया.<BR/><BR/>अच्छा लगा कि तुमने मेरी सलाह पढ़कर लेख को कई पैरा में बाँट दिया.<BR/><BR/>इससे फ़ायदा ये हुआ कि तुम्हारा विचार तुम्हारे पाठकों तक पहुँचा.<BR/><BR/>मुद्दे की बात पर आऊँ तो कहना चाहूँगा कि कभी तुमने सोचा है कि आख़िर कवियों का नाम सुनते ही लोग डंडा पकड़ने के लिए क्यों लपकते हैं?<BR/><BR/>इसका एक बहुत ही वैज्ञानिक कारण हैः <BR/><BR/>कितना ही बेसुरा आदमी हो, सरगम का स न मालूम हो और संगीत से कुत्ते-ईंट जैसा बैर हो -- फिर भी अगर उसके कान में बेसुरा गीत पड़ेगा तो वो झट ताड़ जाएगा.<BR/><BR/>इसी तरह सरइया चक का झम्मन जमादार ही क्यों न हो, अगर कविता के नाम पर उसे चूतियापा बेचने की कोशिश करोगे तो वो पूरा झाड़ू कर देगा.<BR/><BR/>उसे आल्हा के सुरों में ढाल कर इनक़लाब का गीत सुनाओगे तो वो सुनेगा.<BR/><BR/>अब ये मत पूछना कि छद्म नाम से क्यों लिख रहा हूँ. हम अभी इतने स्वतंत्र चेता नहीं हुए हैं कि नाम बताकर आलोचना कर सकें और इस बात का डर न हो कि आलोचना का भागीदार गाँठ न बाँध ले.Third Eyehttps://www.blogger.com/profile/15698316715337394391noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post-30458140215770790922007-08-22T09:25:00.000-07:002007-08-22T09:25:00.000-07:00हूं?.. हूं!.. हूं? अच्छा.हूं?.. हूं!.. हूं? अच्छा.azdakhttps://www.blogger.com/profile/11952815871710931417noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post-58607608253968786782007-08-22T09:04:00.000-07:002007-08-22T09:04:00.000-07:00चंदू भाई, यही तो समस्या है कि हृदय की बात नहीं होत...चंदू भाई, यही तो समस्या है कि हृदय की बात नहीं होती। क्षुद्र दुनियादारी ने कामयाब कवियों के हृदय की धमनियों को चोक कर रखा है। आप अच्छा लिखते हैं, अच्छे कवि हैं, बेधड़क लिखिए। लेकिन कविता के नाम पर स्वांग रचनेवालों को मत बख्शिए, ये मेरी गुजारिश है।अनिल रघुराजhttps://www.blogger.com/profile/07237219200717715047noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post-24266893251008907852007-08-22T03:41:00.000-07:002007-08-22T03:41:00.000-07:00हां! रघुराज की इस बात से पूरी सहमति है कि कवि वही ...हां! रघुराज की इस बात से पूरी सहमति है कि कवि वही हो सकता है जिसने जोखिम उठाया हो या जो जोखिम उठाने को तैयार हो . कवि को आलोचक के बाड़े के भीतर और बाहर मिमियाने वाली बकरी नहीं होना चाहिए. <BR/>प्रियंकर की इस बात पर गौर किया जाना चाहिए.इष्ट देव सांकृत्यायनhttps://www.blogger.com/profile/06412773574863134437noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-5004531893346374759.post-17071709470509537062007-08-22T02:47:00.000-07:002007-08-22T02:47:00.000-07:00कविता दुनिया के नक्कारखाने में तूती का स्वर है.महा...कविता दुनिया के नक्कारखाने में तूती का स्वर है.महादेवी के शब्दों में इसे 'तुमुल कोलाहल कलह' में ठीक ही 'हृदय की बात' कहा जा सकता है .<BR/><BR/>बाज़ार के सर्वग्रासी विस्तार के इस धूसर समय में हो सकता कुछ कविताएं पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन की तकनीक से बन रही हों . पर कविता फ़कत पर्म्यूटेशन-कॉम्बीनेशन और शब्दों-भावनाओं को फेंटने-लपेटने का मामला नहीं है . न ही यह कोई दिव्य-अलौकिक किस्म का आसमानी ज्वार है . प्रथमतः और अन्ततः यह अपने समय और समाज के प्रति सच्चे होने का मामला है . यह संवेदनाओं और अनुभूतियों का मामला है और विचार का भी. यह ऐसा स्वप्न है जो तर्क की उपस्थिति में देखा जाता है . हां! यह उपलब्ध भाषिक-सांस्कृतिक उपकरणों के 'आर्टीकुलेशन' का भी मामला है . अगर यह एक सच्चे-ईमानदार आदमी का 'स्वान्तः सुखाय' घरू मामला है, तो भी इसका सामाजिक निहितार्थ और विस्तार होगा ही .यूं तो तुलसी ने भी रघुनाथ गाथा स्वान्तः सुखाय लिखी थी .<BR/><BR/>दिल्ली से दमिश्क और पूर्णिया से पैरिस तक मनुष्य की अनुभूतियां,भावनाएं और संवेग एक जैसे हैं . व्यक्तिगत सुख-दुख,आशा-निराशा,हर्ष-विषाद तो होते ही हैं,पर मूढ को छोड़कर जगत गति भी सबको व्यापती है. रघुराज ने तो फ़िर भी संख्या सौ-पचास गिना दी,हो सकता है संख्या और भी कम हो . पर इसका कोई 'मैथमैटिकल फ़ार्मूला' कभी बन सकेगा मुझे शक है .<BR/><BR/>इसलिए कविता के प्रति 'सिनिकल ऐटीट्यूड' एक तरह से जीवन से असंतोष का ही एक रूप है -- बीमार असंतोष का . यह मिल्टन के 'पैराडाइज़ लॉस्ट' के सैटर्न की तरह ईश्वर/आलोचक/सत्ता-प्रतिष्ठान के प्रिय कुछ कवियों की धूर्तता और चालाकी के बरक्स एक प्रकार की 'इंजर्ड मैरिट' का इज़हार भी हो सकता है . पर इस नाते इस समूची विधा पर कोई फ़तवा ज़ारी कर देना एक अहमकाना कदम होगा . डार्विन के सिद्धांत के साहचर्य में फल-फूल कर कुछ लोग इतने 'सिनिकल' हो जाते हैं कि उनके लिए जीवन में पवित्र-निर्दोष-निष्पाप या ईमानदारी-त्याग-देशप्रेम जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं रह जाता . यह 'सिनिसिज़्म' के सम्प्रदाय में निर्वाण जैसी ही कोई स्थिति होती होगी . पर तब वे कविता के लोकतंत्र के सहृदय सामाजिक होने की योग्यता खो देते हैं .<BR/><BR/>सिनिसिज़्म की कविता से एक दूरी है . अक्सर वह व्यंग्यकारों का औज़ार होता है . शायद यही कारण है कि बहुत कम व्यंग्यकार कविता को ठीक ढंग से सराह पाते हैं . बल्कि ज्यादा 'सिनिसिज़्म' होने पर वे व्यंग्यकार भी निचले दर्ज़े के होते जाते हैं . उनकी अनास्था और उनका द्वेष -- हर बात पर ठठ्ठा करने और दांत चियारने और चियरवाने का उनका रोग -- इस हद तक बढ जाता है कि उन्हें आस्था और भरोसे का कहीं कोई बिंदु ही नहीं दिखाई देता . बस इसी जगह आकर व्यंग्य सृजनात्मक साहित्य के संसार से अपनी नागरिकता खोना शुरू कर देता है .<BR/><BR/>हां! रघुराज की इस बात से पूरी सहमति है कि कवि वही हो सकता है जिसने जोखिम उठाया हो या जो जोखिम उठाने को तैयार हो . कवि को आलोचक के बाड़े के भीतर और बाहर मिमियाने वाली बकरी नहीं होना चाहिए .<BR/><BR/>कवि बंधु मैदान में कूदें . इस पर और खुली बात-चीत होनी चाहिए . गंभीर बात-चीत .Priyankarhttps://www.blogger.com/profile/13984252244243621337noreply@blogger.com