Friday, April 24, 2009

बिहटा का खामोश पीपल

क्या आपने शाम के वक्त किसी विशाल पीपल के पेड़ को खामोश देखा है? शुरुआती जाड़ों की गुनगुनी धूप गुजर जाने के बाद थिर आकाश में टंगा कांपते पत्तों वाला जंडइल पीपल का स्तब्ध पेड़, जिस पर एक भी चिड़िया नहीं बोल रही हो, यहां तक कि गिलहरी के किटकिटाने या झींगुर के झिनझिनाने की आवाज भी न आ रही हो?

1989 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के ठीक बाद हम लोग सोन नदी के पास भोजपुर के बिहटा गांव में थे, और वहीं के प्राइमरी स्कूल में पीएसी कैंप के ऊपर मैंने एक ऐसा पीपल का पेड़ देखा था।

गांव में दो दिन पहले बिहार के सबसे भयंकर जनसंहारों में से एक संपन्न हुआ था। दलितों-पिछड़ों के सारे घर खाली थे। उनमें से कई के चौखटों पर खेलने वाले बच्चे चौखटों पर ही पटक कर मारे जा चुके थे। पास की नहर में बहती हुई दूर चली गई कटी-फटी लाशें मील-दो मील-चार मील दूर के गांवों में अब भी निकाली जा रही थीं, और हम बिहटा गांव में थे, यह जानने के लिए कि इस अंधे मोड़ से बाहर आने का रास्ता कहां से निकलेगा।

सीपीआई-एमएल लिबरेशन की पहल पर बने आईपीएफ का यह पहला लोकसभा चुनाव था। आरा से किसान नेता रामेश्वर प्रसाद पार्टी के उम्मीदवार थे और एक नक्सली नेता के रूप में संसद पहुंचने की पहली और अभी तक की एकमात्र मिसाल भी उन्होंने ही पेश की थी। आईपीएफ ने उस चुनाव में किसी भी सूरत पर बूथ कब्जा न होने देने की मुहिम चलाई थी, लेकिन सामंती प्रभुत्व वाले बिहटा गांव में वोट डालने गए दलितों-पिछड़ों को तीन-तीन बार बूथ से भगा दिया गया था।

इसके बाद उन्हीं की झोपड़ियों में छिपे लिबरेशन के हथियारबंद दस्ते के लोग राइफलें लिए बाहर आए, बूथ लुटेरों को भगाने के लिए कुछ हवाई फायर मारे और दो को उसी ठौर मार भी डाला। उस समय तक बाकायदा योजना बनाकर गांव के सारे पोलिंग बूथ दबंगों की बस्तियों में ही बनाए जाते थे, लिहाजा घेरेबंदी जैसी हालत में इस फायरिंग से मची अफरा-तफरी में तीन निर्दोष लोग भी मारे गए। इस घटना की प्रतिक्रिया में वह जनसंहार घटित हुआ, जिसका जिक्र ऊपर किया गया है।

तीस से ज्यादा औरतें, बूढ़े, बच्चे स्थानीय सामंत ज्वाला सिंह और उसके गुंडों की क्रोध ज्वाला में भस्म हो गए। बचे हुए लोगों में एक आईपीएफ के कार्यकर्ता राजबलम साह भी थे, जिनके सगों में ससुराल गई लड़कियों के अलावा कोई नहीं बचा था। घटना के बाद उन्हें मैंने न कभी सुखी देखा, न दुखी। राख जैसी कोई चीज उनकी आंखों और चेहरे से हमेशा झरती मालूम पड़ती थी, हालांकि मैं भोजपुर में जब तक रहा, उनकी राजनीतिक सक्रियता में कमी आते कभी नहीं देखी।

मेरा ख्याल है, नवंबर की किसी तारीख को हम बिहटा पहुंचे थे। रामेश्वर जी, सहार विधानसभा क्षेत्र से जुड़े कार्यकर्ता सतेंद्र सिंह, मैं, गाड़ी चलाने वाला एक पार्टी कार्यकर्ता और बतौर सांसद रामेश्वर जी को कुछ ही समय पहले मिला एक गार्ड। हमारी योजना पुलिस कैंप जाकर वहां के अधिकारियों से बात करने की थी कि भागे हुए लोगों की वापसी और उनकी सुरक्षा के लिए वे क्या कर रहे हैं। लेकिन कैंप कहां है, यह तो हमें पता ही नहीं था।

गांव की सीमा तक पहुंचने के बाद भी रास्ता बताने वाला कोई नहीं दिखा तो कुछ देर दुविधा रही कि गांव के भीतर चलें या नहीं। फिर हुआ कि गाड़ी से चुपचाप निकल जाएंगे, कौन देखता है। लेकिन थोड़ा ही अंदर जाने पर गाड़ी के पिछले चक्के सड़क पर बह रही एक नाली में फंस गए। गाड़ी हल्की करने के लए ड्राइवर के अलावा बाकी लोग नीचे उतर गए तो सतेंद्र ने कहा कि खुले में वहां खड़ा रहना ठीक नहीं है, रास्ता पूछते हुए धीरे-धीरे आगे ही बढ़ना चाहिए।

उधर ड्राइवर ने जोर-जोर से ऐक्सीलरेटर देते हुए गाड़ी निकालने की कोशिश शुरू की, इधर छतों और खिड़कियों से गली पर नजर रखे कुछ लोगों ने सतेंद्र को पहचान लिया। सतेंद्र का जाति से राजपूत होना उनके लिए कुछ ज्यादा ही खतरनाक साबित हुआ। आवाजें सुनाई पड़ने लगीं- सतेंदरा है रे साला सतेंदरा, अरे देखो रमेसरा भी है साला, मार साले के। कई तरफ से ईंट-पत्थर उछल कर हम पर पड़ने लगे। छिपने की कोई जगह नहीं थी। संयोग से इतने में जीप नाली से निकल आई और किसी तरह लटक-पटक कर हम लोग उसमें लद लिए।

यह भी संयोग ही था कि वह रास्ता आगे स्कूल तक जाता था, जहां विशाल पीपल के पेड़ के नीचे पुलिस का कैंप लगा हुआ था। लाल टहक खूनी शाम में कैंप की एक-दो लालटेनें टिमटिमाने लगी थीं। रामेश्वर जी ने पुलिस अधिकारियों से बात शुरू ही की थी कि उन्होंने उन्हें तत्काल निकल जाने का संकेत किया। उस माहौल में वहां रुकने का कोई मतलब भी नहीं था लिहाजा हम लोगों ने भी इस पर कोई एतराज नहीं जताया।

इसके बाद बिहटा के उजड़े हुए लोगों को बसाने का संघर्ष कई वर्षों तक चला और अंत में यह कामयाब भी हुआ। मेरे दिल्ली आने के कुछ समय बाद बिहटा के ज्वाला सिंह और उसके साथ के कुछ सरगना किस्म के लोगों के मार दिए जाने की सूचना भी मिली। लेकिन चुनाव से जुड़ी अपनी यादों में सबसे चटख चीज मुझे आज भी बिहटा की वह खतरनाक रुआंसी शाम ही मालूम पड़ती है, जिसमें एक पीपल का पेड़ था, जिस पर कोई चिड़िया नहीं बोल रही थी।

6 comments:

उपाध्यायजी(Upadhyayjee) said...

मुझे भी हल्का हल्का याद है. पहले लगता था की ज्वाला सिंह नामका कोई व्यक्ति पागल हो गया था और वो जनसंहार करने लगा था. लेकिन आपने पूरा व्योरा दिया. तो वो हथियार बंद आतंकी थे जिन्होंने बिहटा में खुनी मंजर की शुरुआत किये थे. भला हो उनको टक्कर देने वाले दुसरे दस्ते को जिसने उनको लाल झंडा में ही बाँध कर सोन के उस पार भेज दिया. नहीं तो वे और कितने खुनी मंजर करवाते रहते.

दिनेशराय द्विवेदी said...

यथास्थिति में परिवर्तन की चाह के साथ हस्तक्षेप एक नरसंहार को जन्म देता है। सब से अधिक हिंसा का प्रयोग प्रभु वर्ग ही करता है। जो किसी भी कीमत पर यथास्थिति को बनाए रखना चाहता है।

राजेश उत्‍साही said...

चंद्रभूषण जी आपके ब्‍लाग पर आकर अच्‍छा लगा। वर्षों तक आपको और इरफान भाई को जनमत में पढ़ता रहा हूं। एक बार फिर से पढ़ने का मौका मिला। मैंने भी एक ब्‍लाग बनाया है गुल्‍लक नाम से । पता है utsahi.blogspot.com चंद्रभूषण जी यह देखकर दुख होता है कि ज्‍यादातर ब्‍लाग पर लोग बस एक दूसरे की तारीफ करने में लगे रहते हैं। कुछेक ब्‍लाग को छोड़कर बाकी पर कोई गंभीर विमर्श ही नहीं होता। क्‍या यह संभव नहीं है कि आप लोग जनमत जैसा कुछ माहौल ब्‍लाग पर भी बनाएं। मैं आपके साथ हूं।

चंद्रभूषण said...

राजेश जी,नियमित और अनियमित मिलाकर कम से कम बीस-पच्चीस ब्लॉग ऐसे जरूर हैं जहां आपको रोजाना कुछ पढ़ने लायक चीजें मिल सकती हैं। नाम क्या गिनाऊं, आप देख ही रहे होंगे। कबाड़खाना, अजदक, निर्मल आनंद, टूटी हुई बिखरी हुई, अनुनाद, एक हिंदुस्तानी की डायरी, रात में हारमोनियम और कई सारे ऐसे ब्लॉग हैं जहां आपको जनमत जैसी या उससे अच्छी चीजें पढ़ने को मिल रही होंगी। गुल्लक देखूंगा और अगली मुलाकात वहीं पर होगी।

विवेक भटनागर said...

आदरणीय चंद्रभूषण जी,
पत्रकारिता में प्रवेश के समय ही मैंने एक ग़ज़ल में शेर कहा था-
इतनी आसानी से जीवन में वसंत आता नहीं,
पहले पत्ता-पत्ता झरने का सलीका सीख लो.
लगता है, मैं जीवन के हर क़दम पर पत्ता-पत्ता झर रहा हूँ. दिल्ली प्रेस में क्लर्की रूपी पत्रकारिता और शोषण दो साल बर्दाश्त किया और छोड़कर स्वतंत्र भारत आ गया. दो साल होते-होते अखबार ही बिक गया और वहां काम करना लगभग बेरोजगार होने जैसा ही हो गया. वहा से माधुरी, फिर अमर उजाला. यहाँ की दस साल की नौकरी में आपके साथ से लेकर अंतिम पांच साल बहुत अच्छे रहे, लेकिन लखनऊ ट्रान्सफर होते ही मैं अलग तरह का राहुल पांडे बन गया. अंततः मंदी का नाम लेकर मुझसे इस्तीफा मांग लिया गया. इस वक़्त मैं भी बेतरह झर रहा हूँ आपके खामोश पीपल की तरह, जिस पर कोइ चिडिया नहीं चहचहाती.. महंगा प्रोडक्ट होते हुए भी जॉब मार्केट में नहीं बिक पा रहा हूँ. कैल्सियम अटैक से बचने के लिए एक ब्लॉग की शुरुआत की है, जिसमे पहली पोस्ट के रूप में आपकी पसंद की एक ग़ज़ल डाली है. उसे आपका देखना ही मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा.
http://www.andaz-e-byan.blogspot.com/

Ajeet Singh said...

चन्दु जी यॆ जॊ आपनॆ अपनॆ पुरानॆ मित्र अमरॆश मिश्र का जिक्र किया है क्या यॆ वही शक्श है जिननॆ 26/11 मुम्बइ आतन्कवादी हमले कॊ हिन्दू आतन्क्वाद ऎवम RSS की करतूत बताया था क्रिपया अपनॆ विचार बतायॆन http://teeth.com.pk/blog/2008/12/01/amaresh-misra-mumbai-tragedy