Saturday, April 18, 2009

सांझ ढले आईना देखा

दाईं भौंह पर कटे का निशान
आंखों की कोर पर कौओं के पंजे
माथे पर आड़े-तिरछे टूटे-बिखरे इतने सारे बल
सब कुछ ठीक होने पर भी
जो नहीं जाते नहीं जाते

निचले होंठ के दोनों किनारों पर
नीचे को निकलती गहरी नालियां
दाईं लंबी बाईं कुछ छोटी
आंखें भीतर को धंसी चुंधियाई
चश्मे बगैर जो देखी नहीं जातीं
कनपटी पर पकते बालों के नीचे
अट्ठाइस साल से रगें दबाती
चश्मे की कमानियों के दाग

क्या यही इस चेहरे की पैमाइश है

नहीं, और भी है बहुत कुछ
आईने में जो नजर नहीं आता
न जिसे कोई कैमरा पकड़ पाता है

धोखे जो दिए गए और जो खाए गए
जिल्लतें जो झेली गईं इज्जत समझ कर
हताशाएं जो धारी गईं ढाल की तरह

एक घिसा-थका प्रेमहीन जीवन
खुद में कोई चमत्कार नहीं
चमत्कार इसके मगर चेहरे पर बिछलते हैं

एक चेहरा तुम गौर से देखते हो
एक पूरा वक्त खुलता हुआ आता है
और चेहरा जब खुद का हो
तब गूंजती है हर तरफ वक्त की भायं-भायं

और इसकी कैफियत मुझसे क्या पूछते हो
मैं क्या ऐसा ही इस दुनिया में आया था
ऐसा ही खुरदुरा और बदरूप
पिलपिला चिड़चिड़ा और थका हुआ

इतनी हसरत से तुम्हारा मुझे देखना-
क्या तुम चाहते हो यह सब मैं वीरगाथा में लिखूं

नहीं, तुम सिर्फ एक परछाईं हो
इस तनहाई में भी मैं तुम्हें कृतार्थ नहीं करूंगा

चौगिर्द नाचते युद्ध के रूपकों बीच
सांझ के झुटपुटे में आईना देखना
हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गम् जित्वा भोक्ष्यसे महीम्
जैसे किसी सुहाने विभ्रम से भी वंचित योद्धा का
युद्ध में गिरते हुए अंतिम बार रणखेत देखने जैसा है

झर-झर बहते रक्त के साथ बाहर जाती
कुछ पलों की व्यर्थ की अनुगूंज
क्यों जिया क्यों लड़ा
मरा भी तो आखिर क्यों

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