Wednesday, April 15, 2009

कब्रिस्तान में कुछ गप्पें

अभय अक्खी मुंबई में घूम-घूम कर पेड़ों और फूलों की पहचान कर रहे हैं तो इधर दिल्ली में उनके दोस्त-मित्र भी उनसे ज्यादा पीछे नहीं हैं। पहचान भले न कर पाएं लेकिन दफ्तर की आलस भरी गर्म दुपहरिया में कुछ पेड़-पौधे देखने का जुगाड़ कर ही ले रहे हैं। संयोग से भाई दिलीप मंडल भी उसी समूह में नौकर हैं जिसमें मैं हूं- एक ही धंधे में इतने दिनों तक रह लेने के बाद यह मौका पहली बार ही आया है। एक दिन दिलीप बाबू ने फोन पर एक बड़ी अच्छी जगह दिखाने का वादा किया और दफ्तर के पीछे की चाय की दुकानों से एक-एक चाय पकड़ कर उससे भी पीछे के एक विशाल कब्रिस्तान में लिवाते चले गए।

सौ साल से भी ज्यादा पुराने इस कब्रिस्तान की महिमा न्यारी है। अनुराधा (प्रख्यात लेखिका, कैंसर कार्यकर्ता और दिलीप की पत्नी) इस पर छोटी-मोटी रिसर्च कर चुकी हैं। देश-दुनिया के न जाने कितने बड़े-बड़े लोग यहां दफन हैं। छेनी-हथौड़ी लिए आठो पहर की खिटखिट से कब्रों के शिलालेख लिखने वाले बाराबंकी के एक सज्जन ने बताया कि यहां तो एक से एक अल्ला वाले सोए पड़े हैं।

ज्यादातर शिलालेखों पर सिर्फ उर्दू में इबारतें लिखी हैं, जिसमें अपनी कोई गति नहीं है। घने पेड़ों की छांव में शानदार मजार जैसी दिखती एक कब्र के पास खड़े होकर हम लोगों ने वहीं हिलगे- मटुआए हुए कुछ लोगों से पूछा कि यह कब्र किसकी है तो हल्की-फुल्की दाढ़ी रखे एक नौजवान ने काफी गर्व से जवाब दिया- यह फलाने (कोई नाम लेकर) साहब का मजार है, इन्होंने ही तो श्रद्धानंद को मारा था!

इतिहास में कहीं पढ़ने को मिला था कि एक सिरफिरे द्वारा आर्यसमाजी स्वामी श्रद्धानंद की हत्या कर दिए जाने के साथ ही भारत में खिलाफत और असहयोग आंदोलन की साझा लय हमेशा-हमेशा के लिए टूट गई। कभी सोचा न था कि उस सिरफिरे का इतना शानदार मजार दिल्ली में आज भी मौजूद होगा और एक दिन उसके बगल में खड़े होकर प्लास्टिक के कप में चाय पीते हुए इतने झटके से उसके बारे में जानकारी प्राप्त हो जाएगी।

इस कब्रिस्तान की सबसे अच्छी बात यह है कि दिल्ली के मुख्य चौराहों में गिने जाने वाले आईटीओ इलाके में होते हुए भी यहां बहुत पुराने पेड़ सही-सलामत हैं। कुछ जगहों पर लताओं का घना जाल भी बिछा है, जो एक झटके में जंगल जैसा एहसास कराती हैं। चटख गर्मी में यहां की शीतल छाया जी जुड़ाती है। कुछ पेड़ों पर हल्का हरापन लिए सफेद फूल भी आए हुए हैं, जो पहले कभी देखे नहीं। इन पेड़ों का नाम भी नहीं पता है और पास में इतनी सलाहियत भी नहीं है कि इनका फोटू यहां डाल कर चार पंचों से इनका नाम ही पूछ लें।

देश में चुनावों की धूम मची हुई है लेकिन अखबारों में आ रही खबरें इतनी बुरी, इतनी भयानक हैं कि शायद हमारी ही तरह देश का आम मतदाता भी इस धूम में शामिल होने के बजाय इससे कतराने के उपाय ढूंढ रहा हो। बहरहाल, चुनावों पर नजर है और कुछ कहने को सूझा तो जरूर कहा जाएगा। प्यारे भाई अशोक पांडे से वादा है कि यह शुभकार्य पहलू पर नहीं, कबाड़खाने पर ही किया जाएगा।

3 comments:

बोधिसत्व said...

क्या उस समाधि पर यह दर्ज है कि इसने श्रद्धानंद की हत्या की है।चुनाब से भाग कर कहाँ जाएँगे। इसी भागने और बचने का नतीजा आज है कि लग ही नही रहा है कि चुनाव कोई लोकतांत्रिक कार्रवाई है। जो हाल मंच पर हिंदी के कवियों का है वही हाल राजनिति में कम भ्रष्टों का है।

अजित वडनेरकर said...

जिस दफ्तर में आप काम कर रहे हैं उसी में करीब डेढ़ दशक पहले काम करते हुए इसी सुकूंन भरी जगह पर हम भी हो आते थे। बहुत साल बाद आपने याद दिलाई।
यूं भी मरघटों, कब्रिस्तानों से बेहतर, शांत जगह कोई और नहीं। मुझे जब भी मौका लगता है किसी न किसी ऐसी ही जगह हो आता हूं....

अभय तिवारी said...

पेड़ों में ज़रा भी दिलचस्पी हो तो प्रदीप क्रिशन की किताब ज़रूर खरीदें। 'ट्रीज़ आफ़ डेल्ही' यूं तो ८०० रुपये की है मगर अमूल्य है!