Friday, September 14, 2007

बीच समुंदर गोपी चंदर

इतने जहाजों में इतनी बार
इतने मुल्कों का सफर
गया नहीं फिर भी मन से
ऊंचा उड़ने का डर
अछोर खालीपन में खूंटी खोजते
नजर गड़ाए रखना
अधर में अटके पंख की रौशनी पर
खुद में क्या कुछ कम यातना है-
ऊपर से दिल में धंसती
टर्बो की घर-घर-घर

ओह, क्या दिख गया अचानक
चटख सप्तर्षि की सीढ़ियां चढ़ता
लांड्री से धुलकर आया
झक्क सफेद चांद
ये रात भीगी-भीगी ये मस्त फिजाएं
उठा धीरे-धीरे...ये चांद भी कैसा
कि जिसकी कोई चांदनी नहीं है

उठो चांदनी... देखो चांद
कहते-कहते रुक गई जुबान
कि जहाज की बहुत हल्की रौशनी में खोया
जर्द चेहरा कहीं और ही नजर आया
कि लंबे सफर में टूटकर उचट गई नींद
तो पता नहीं फिर लौटे न लौटे
कि क्या असर डाले गर्भ की जैविकी पर
नीचे थिरकती क्षितिज टटोलती
ज्वारमय अटलांटिक की औचक कौंध

नई दुनिया में पुराने लोग
सदा अजनबी होंगे सदा पराए
पेट का बच्चा लेकिन रहेगा अमेरिकी
जाति धर्म नस्ल वर्ण वर्ग देश
अच्छे-बुरे इतने सारे नाते-
सब के सब जमीन के
कुछ भी तो नहीं यहां
जमीन से सात मील ऊपर
जरा सी गड़बड़ी रत्ती भर चूक
फिर कैसा अमेरिका कहां का हिंदुस्तान

काले समुंदर काले आकाश बीच
आंखों में मिर्च सा लगता
पंख के छोर पर जलता लाल बल्ब
पीछे अपने लकीर छोड़ आया है
कई हजार मील कई सौ साल लंबी
सुखों सी शक्ल वाले दुखों की लकीर
जहां दर्ज है कुछ करोड़ मौतों का हिसाब
जिसके हाशियों में कहीं जिंदगी कैद है

इसी लकीर पर चलते-चलते
बीत चली है अब अपनी भी रात
इस रतजगे की रात में
नींद भर सोई ओ चांदनी
जागने के बाद अगर हो सके तो
आज का कोई सपना बचा रखना
सौंप देना उसे अपने नन्हें अमेरिकी को
पास जिसके होंगे सारे सरंजाम
पर सबकुछ के बाद शायद यही नहीं होगा।

No comments: