Friday, August 3, 2007

तर्पण

जमीन छोड़ी होती तो
इतने कलेस के बाद
ज्यादा सोचने की जरूरत न पड़ती
खींचकर खर्रा मुंह पर मारता और कहता
ले लो इसे जहां लेना हो
अपन तो चले खेती करने


पैसे छोड़े होते
कोई काम ही सिखा दिया होता
तो यहीं दफ्तर के पास
अपना धंधा खड़ा कर देता
कुत्ते की तरह दुबारा शकल दिखाने
इधर तो न आता


अरे कुछ नहीं छोड़ा तो
अकल ही दी होती दुधारी तलवार
कि यहीं पड़ा-पड़ा धूल की रस्सी बंट देता
चित कर डालता खिलाड़ियों को
उनके ही खेल में


जीने भर को दिमाग दिया, मन दिया
सत्य, सहृदयता, ईमानदारी दी-
पर यह भी तो नहीं कह सकता छाती ठोंककर
कि कहूं तो किस लायक हूं
जो कोई रुककर ये चीमड़ बातें सुनेगा


हर पिटाई के बाद ऐसे ही किलसकर
याद करता हूं तुम्हें ओ पिता
देता हुआ खुद को दिलासा
कि न कम न अधिक
ठीक इतना ही छोड़कर जाऊंगा
मैं भी अपने बेटे के लिए

ताकि हर तीसरे दिन
वो ऐसे ही भुनकर मुझे गालियां दे
और ज्यादा नहीं तो उसके जीते जी
मेरे साथ तुम्हारा भी तर्पण होता चले

6 comments:

  1. हम्म!! बेहतरीन.

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  2. आप की कविता पढ़ कर लगा कि मैं चूक गया। अक्सर मुझे लगता है कि पिता की कोई भी योजना क्यों नहीं थी हमारे बारे में। पर किसी भी नतीजे पर नहीं पहुँच पाता।
    साथ में यह भी जोड़ रहा हूँ कि अच्छी कविता है।

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  3. बस, यही कह सकता हूं कि बहुत ही अच्छी कविता है।

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  4. सही है। अच्छा लगा इसे पढ़कर!

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