Saturday, June 2, 2007

दास्तान-ए-ग़ैब-4

फीरोज़ुल लुग़ात में ग़ैब के ये मायने दिए हुए हैं- ग़ैरमौज़ूद, ग़ायब, पोशीदा, ओझल, ग़यूब, ग़याब। और ग़ायब के ये हैं- ग़ैरहाज़िर, पोशीदा, जो मौजूद न हो, ग़ायबीन। इसके अलावा क्रिया के रूप में ग़ैब के कुछ और भी मायने भी हैं- ग़ुलीला हो जाना, छुप जाना, ग़ुम हो जाना। यानी शब्दकोष देखने में ग़ैब और ग़ायब में कोई फर्क नहीं मालूम पड़ता। लेकिन इस्तेमाल में दोनों के बीच फर्क बहुत ज्यादा हो जाता है।

ग़ैब के दायरे में वे सारी चीजें आ जाती हैं जिनका किसी न किसी रूप में हमें एहसास होता है लेकिन जो हमारे सामान्य दृश्य जगत में नहीं आतीं, जिनका अनुभव हम कर सकते हैं लेकिन अपनी गिरफ्त में नहीं ले सकते। ग़ैब का हाल जानने वाले का मतलब नज़ूमी या ज्योतिषी से लगाया जाता है और ग़ैबी ताकतों से भूत-प्रेत, जिन्नात वगैरह का अर्थ लिया जाता है। कुल मिलाकर 'ग़ैब' होने और न होने के बीच के एक अव्याख्यायित, अपरिभाषित, धुंधले दायरे को व्यक्त करता है। यह कहानी दरअसल ऐसे ही दायरे में पहुंच गए एक आम आदमी के बारे में है।

हमारे युग का तर्कबोध सिर्फ चीजों के होने या न होने से बना है। भौतिकवादी दर्शन का आधार आज भी न्यूटन की यांत्रिकी है जो द्रव्य बिंदु (मास पॉइंट) और अद्रव्य बिंदु (नॉन मास पॉइंट) पर टिकी है। पूरे पश्चिमी दर्शन में अबतक के चरम बिंदु ज्यां पॉल सार्त्र भी अस्तित्व और अनस्तित्व (बीइंग ऐंड नथिंगनेस) के द्वैत में सोचते हैं। अपने पूरे समय की तरह मेरी भी निजी सोच यही है कि जो कुछ भी है वह या तो है या फिर नहीं है। होने और न होने के बीच की या इसके अलावा किसी और तरह की चीज के बारे में न मुझे कोई जानकारी है और न मुझे लगता है कि ऐसा कुछ हो सकता है।

लेकिन मेरे पास भाषा है, जिसमें ग़ैब जैसे शब्द आज भी बचे हैं और एक पूरा समाज है, जिसके सोच में अस्तित्व की ग़ैर-आधुनिक श्रेणियों के लिए ढेरों तहखाने है। इसमें गांवों-कस्बों में टोना-टोटका, डायन और भूत-प्रेत का कारोबार होता है तो महानगरीय स्तर पर भविष्य भाखने के नाम पर सालाना करीब ढाई हजार करोड़ रुपये का धंधा भी चलता है।

दस-बारह साल की उम्र से मैं इन सारी चीजों को सिरे से खारिज करने के लिए हमेशा तैयार बैठा रहा हूं और अपने इस फैसले से मुझे कभी पछतावा नहीं हुआ है। लेकिन अब इसका मैं क्या करूं कि होने और न होने के बीच का रेज़र शार्प विभाजन तीस के दशक से खुद विज्ञान ने ही खारिज कर दिया है। हाइजनबर्ग ने अपने पक्के-पोढ़े अनिश्चितता के सिद्धांत के जरिए इन दोनों श्रेणियों के बीच जो दरार डाली, उसके भरने का अब कोई सवाल ही नहीं है।

यानी किसी चीज के बारे में आप न पूरे निश्चय के साथ यह कह सकते कि वह है, न ही यह कि वह नहीं है। यानी सिर्फ यही नहीं कि है और नहीं है के बीच भी कुछ है। बल्कि यह भी कि है और नहीं है के अलावा भी कुछ है। यह सुनकर भारतीय दर्शन के किसी छात्र के कान बजने लग सकते हैं कि शब्दों का यह घनचक्कर कुछ सुना-सुना सा लगता है। जी हां, उसका अंदाजा सही है। जैन दर्शन में यह सब है और इसके अलावा भी बहुत कुछ है।

कोई कह सकता है कि हाइजेनबर्गीय अनिश्चितता की दरार बड़ी सूक्ष्म है और स्थूल जगत में इसके किसी दखल के बारे में बात करना बेकार है। इस बारे में निजी तौर मेरी राय भी यही है। लेकिन अगर हमारी बातचीत मन से जुड़ी चीजों के बारे में हो रही हो तो बात और है क्योंकि तब हम किसी स्थूल चीज के बारे में बात ही नहीं कर रहे होते हैं।

कुछ लोग अपने मन से कम प्रभावित होते हैं। वे मजबूत लोग होते हैं। इतिहास उनकी हैसियत के मुताबिक उनके लिए जगह खाली करता जाता है। कुछ लोग उतने मजबूत नहीं होते और अपने गोते खाते मन की चपेट में आकर खुद भी डूब जाते हैं। इतिहास उनके लिए नहीं होता, अलबत्ता अखबारों में उनके लिए एक बार तीन लाइन की जगह निकालने की कोशिश जरूर की जाती है।

यह कहानी इन दोनों तरह के लोगों के बारे में नहीं है। यह एक और ही तरह के आम आदमी के बारे में है, जो ग़ैब में चला गया। जो होने और न होने के बीच की दरार में गिरकर कुछ समय तक थोड़ा इधर-थोड़ा उधर फंसा रहा।... फिर कहां गया, कोई नहीं जानता।

2 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

चंद्र्भूषण जी,आप ने सही लिखा है।बहुत बढिया लेख है।बधाई।

अनिल रघुराज said...

चंदू भाई, कहानी में जानकारी...इसी की जरूरत है। तुलसीदास से लेकर मिलान कुंदेरा तक यही करते रहे हैं। कहानी तो बस एक बहाना है। इसीलिए रामलीला या महाभारत बार-बार देखने पर भी कुतुहल बनाए रखती हैं। लिखते रहिए, निखार आएगा। और हम जैसे पाठकों को एक अच्छी कृति हाथ लग जाएगी।