Wednesday, May 30, 2007

दास्तान-ए-ग़ैब-3

जून का दूसरा पखवाड़ा चल रहा था और ज्यादातर लोग अपनी छुट्टियां सधाने के लिए कहीं का न कहीं का टिकट कटाकर निकल चुके थे। प्रकाश का दफ्तर भी तकरीबन आधा खाली ही था, वरना बॉस के कमरे में चल रहे टीवी की आवाज इतनी दूर तक जाने का सवाल ही नहीं था। फिर भी, मन के भीतर और बाहर चल रही औरतों की रुलाई के बीच ऐसा तारतम्य प्रकाश के लिए तो क्या दुनिया के किसी भी व्यक्ति के लिए सहज नहीं हो सकता था।

पता चला, रात में एक बजे के आसपास पंजाब में कोई रेल दुर्घटना हुई थी। बंबई से जम्मू जा रही ट्रेन तकरीबन अपना पूरा रास्ता पार कर जाने के बाद पटरी से उतरी हुई किसी लोकल ट्रेन से जा भिड़ी थी। ट्रेन में वैष्णो देवी के दर्शन के लिए या कश्मीर घूमने जा रहे देसी सैलानी बड़ी तादाद में सवार थे। प्रकाश के कमरे में वध-काल आज के लिए स्थगित था और पूरे दफ्तर का लंच टाइम इस दुर्घटना की चर्चा से ही गुलजार था। खबर का शुरुआती झटका गुजर चुका था और गनीमत थी कि अभी तक किसी के पास कोई बुरी खबर नहीं आई थी।


इस माहौल में देखते-देखते राजनीतिक बहस के लिए भी थोड़ी गुंजाइश निकल आई। ज्यादा जोर विपक्षी मिजाज के लोगों का था। शर्मा जी ने उग्र स्वर में कहा कि इस सरकार की तो गोड़ी (आवक) खराब है। जब से आई है तभी से दुर्घटना, अकाल, सूखा, बम-विस्फोट- हर रोज कुछ न कुछ हो ही रहा है। जवाब में सत्तापक्ष से थोड़ी-बहुत नजदीकी महसूस करने वाले वर्मा जी ने किंचित नरम स्वर में कहा- 'भई, अब ये कोई ऐसी चीजें तो हैं नहीं, जिनपर सरकार का वश चलता हो। और...सरकार कोई भी हो, हमारे-आपके भाग्य में तो इस या उस बहाने मरना ही लिखा है- दुर्घटना में मरें, या विस्फोट में मारे जाएं, या और कुछ नहीं तो छत से ही रस्सी बांधकर लटक जाएं... '


ऐसी बहसों में प्रकाश आदतन शामिल नहीं होता था, अलबत्ता बीच-बीच में कोई लुत्ती फेंक कर मजे जरूर लेता था। आज उसकी मनोदशा मजे ले पाने की भी नहीं थी, लिहाजा वह चुपचाप सुनता रहा। बीच में उसने देखा कि वर्मा की लंतरानी से बेचैन होकर अजय रावत थोड़ा जल्दी ही उठकर अपना टिफिन समेटता हुआ हाथ धोने चला गया। दफ्तरी मित्रमंडली में आने वाला अजय लगभग प्रकाश का ही हमउम्र था। दो-तीन साल पहले ऐसे ही गर्मियों के दिनों में उसके बेरोजगार छोटे भाई ने गांव में छत के कुंडे से लटक कर फांसी लगा ली थी।


अजय के वापस लौटने तक लोगों का खाना चल ही रहा था लेकिन उसके बीच में उठ जाने से उनकी बातों की रफ्तार और दिशा बदल गई थी। प्रकाश अभी तक अपने सिरदर्द से उबर नहीं पाया था और उसकी आंखें बुरी तरह जल रही थीं। लेकिन अजय के आते ही वह अटकते-भटकते खुद को सबके सामने यह सवाल रखने से नहीं रोक पाया कि क्या उनमें से किसी को भी कभी ऐसी किसी घटना से पहले उसके घटित होने का एहसास हुआ है ।


अपने तुर्की-ब-तुर्की जवाबों के लिए मशहूर एक सहकर्मी ने कहा- 'मुझे तो नहीं हुआ है लेकिन अगर यह सचमुच किसी को होने लगे तो जल्द ही आप उसे पागलखाने में पाएंगे या श्मशान में। अरे, जिस देश में रोज ही इतनी भीषण घटनाएं होती हों वहां इनका पूर्वाभास करने बैठे आदमी का तो दिमाग ही हलुआ होकर रह जाएगा।'


प्रकाश को लगा कि उसके सवाल का इससे बेहतर जवाब हो ही नहीं सकता था। एक भी हफ्ता तो ऐसा नहीं जाता जब देश में कोई न कोई भयानक घटना नहीं घटती हो। जब कभी इनके बीच का फासला बढ़ जाता है तो टीवी चैनल अपनी तरफ से कुछ न कुछ ऐसा कर देते हैं जिससे आप सनाका खा जाएं और रात भर सो न पाएं। कहीं भी किसी चर्चित औरत के खुले या फटे कपड़े पर, या गड्ढे में गिरे बच्चे पर, या फिर बड़े-बड़े लोगों द्वारा गड्डी-गड्डी नोटों के लेनदेन पर कैमरा साधकर अगर एक ने अपनी टीआरपी तान दी तो बाकी सबका जीना हराम हो जाता है। लिहाजा ऐसी किसी भी बात की भनक मिलते ही सभी उसकी तरफ ऐसा जीतोड़ भागते हैं जैसे किसी विस्फोट से बचकर भाग रहे हों। ऐसे भगदड़ भरे माहौल में पूर्वाभास जैसी कोई चीज अगर कहीं हो भी तो उसका औचित्य क्या रह जाता है ?


भाई का क्रिया-कर्म करके लौटने के बाद अजय ने उसे बताया था कि कैसे उस रात यहां सपने में उसने देखा कि किसी जिंदा आदमी की पूरी खाल उतारकर किसी ने उसे एक ठेले पर लाद रखा है। फिर कैसे भारी बूट पहने एक पैर अंधेरे से निकल कर ठेले पर पीछे से ठोकर मारता है और ढलान पर लुढ़कता हुआ ठेला किस तरह बिना किसी आवाज के आगे बढ़ जाता है...


प्रकाश को अजय के सुनाए उस सपने का रंग तक याद था- जमीन-आसमान, सब कुछ लाल, बिल्कुल लाल, खूनी लाल- और उस लालिमा में झलकतीं खाल उतारे आदमी की पीठ और नितंबों की फड़कती हुई काली-नीली नसें। जैसे-तैसे रात गुजारकर अजय बिना कोई सूचना पाए दो-ढाई सौ मील दूर अपने गांव के लिए निकल पड़ा था। वहां गांव से कुछ किलोमीटर पहले ही पड़ने वाले बाजार में थाने के पास उसने अपने गांव के लोगों की भीड़ जुटी देखी। फिर वहीं उसे अपने भाई की खुदकुशी के बारे में पता चला था।


इस घटना के बारे में अजय के साथ प्रकाश की न जाने कितनी बार कितनी सारी बातें हुई थीं लेकिन इसे ज्यादा महत्व देने को खुद अजय भी तैयार नहीं था। उसका कहना था कि किसी अच्छी या बुरी घटना से पहले उसके साथ जुड़ी ऐसी कोई पूर्व-अनुभूति न तो उसे इसके पहले कभी हुई थी, न इसके बाद हुई। पुराने लोगों ने इसे खून की पुकार जैसा कुछ बताते हुए इसके पक्ष में ऐसी कई मिसालें दोहरा दी थीं जिनमें लोगों को अपने निकट संबंधियों के बारे में- खासकर मां को अपनी संतान के साथ घटित होने वाली किसी बुरी घटना का- पूर्वाभास सपने या किसी अपशकुन के रूप में हो गया था।


प्रकाश ने सोचा कि आज की घटना के बारे में वह कभी अजय के साथ विस्तार से चर्चा करेगा। लेकिन फिर काफी समय तक न तो प्रकाश के साथ ऐसी कोई गड़बड़ हुई, न ही किसी के साथ इस बारे में बात करने की कोई जरूरत उसे महसूस हुई।

1 comment:

अनिल रघुराज said...

चंदू भाई, अजय के सपने वाली बात मुझे भुलाए नहीं भूलती। उसी का जिक्र मैंने खुदकुशी की मानसिकता वाली अपनी पोस्ट में किया था। अच्छी कहानी बन पड़ रही है दास्तान-ए गैब...