Tuesday, May 29, 2007

दास्तान-ए-ग़ैब-2

अगली सुबह दफ्तर निकलने से पहले कंघी करते वक्त प्रकाश ने गौर से अपना चेहरा देखा। बिना चश्मे के कुछ ज्यादा ही छोटी लग रही आंखें गड्ढे में जा रही थीं। कनपटियों पर सफेद होते बाल चेहरे को धुंधला बना रहे थे। पुराने शीशे में एकबारगी उसे अपने कानों से धुआं निकलता सा लगा।

तो ऐसा हो गया है वह। तुरंत नहाकर निकलने के बावजूद राख या महीन धूल की एक पतली परत उसे अपने पूरे चेहरे पर पड़ी नजर आ रही थी। एक ऐसा रंग, जो न गोरा है न सांवला। जो सिर्फ थकान और बासीपने का रंग है। और तो और, निचले होंठ के दाईं तरफ छोटी और बाईं तरफ लंबी, दो बहुत गहरी लकीरें न जाने कब से खिंच गई हैं, जैसे उसे सिरे से खारिज करने से पहले उम्र ने उसके चेहरे पर दो गहरे कट मार कर छोड़ दिये हों।

प्रकाश के लिए वह रात भयानक गुजरी थी। नींद पड़ने के तुरंत बाद उसे किसी औरत के रोने की आवाज सुनाई पड़ने लगी। विदाई या गमी के वक्त बायन कर-करके रोती हुई औरत की किलझती, बेधती सी आवाज।

इस आवाज का उत्स खोजने के लिए सपने में वह कहां-कहां नहीं भटका। गांव के पुराने खंडहर घर से लेकर वीरान दफ्तरों के खाली कमरों तक। लेकिन हर जगह कुछ भी, कोई भी नहीं था। सिर्फ एक स्त्री के रोने की आवाज थी जो सपना टूटने तक लगातार बढ़ती हुई एक हाहाकार में बदल चुकी थी।

उसके बाद देर तक उसे नींद नहीं आई। सुबह देर से उठा, लेकिन सपना उसके जेहन में बिल्कुल ताजा था। पत्नी से सपने का जिक्र उसने करना चाहा, लेकिन नहीं किया तो सिर्फ इसलिए कि खामखा परेशान हो जाएंगी और दिन भर में दसियों एसटीडी कर डालेंगी, सो अलग।

दफ्तर के लिए स्कूटर स्टार्ट करते वक्त उसके तर्कवाद ने जोर मारा। उसे लगा कि गायब होने का जो बेतुका खयाल कल दफ्तर में उसके मन में आया था, वह और कुछ नहीं, सिर्फ रुटीन के बासीपने और दिमागी थकान का नतीजा है। उसकी उमर भी अभी इतनी नहीं हुई है कि वह कुछ नया नहीं कर सकता। आखिर उम्र में उससे पचीस साल बड़े अमिताभ बच्चन को आज लोग सत्रह साल की अल्हड़ किशोरी से इश्क लड़ाते देख ही रहे हैं। क्यों न कल से वह योग करना शुरू कर दे, फिर छुट्टी लेकर कुछ दिन के लिए कहीं घूमने निकल जाए।

उसने सारे नकारात्मक खयाल अपने दिल से निकाल देने के बारे में सोचा। संवादहीनता- स्कूटर की रफ्तार बढ़ाते हुए उसे लगा- संवादहीनता ही इस तरह के मानसिक विचलनों की मुख्य वजह है। उसे लोगों से और ज्यादा संवाद बनाना चाहिए और सबके बीच घुलमिल कर रहने का आदी बनना चाहिए। हालांकि इस उत्साहजनक प्रस्ताव पर अमल करने की बात सोचकर वह दहल गया। उसके नजदीकी लोगों में कोई एक भी तो ऐसा नहीं था जिसके पास अपनी चीजों, अपने काम या अपनी तनख्वाह का गुन गाने के अलावा दिल खोलकर करने को कोई बात बची हो।

क्यों न आज दफ्तर छोड़ दें- दफ्तर के बिल्कुल करीब का आखिरी मोड़ काटते हुए उसने सोचा। फिर ध्यान आया, आज तो शुक्र है, और कल कोई गजटेड हॉलीडे है- तीन छुट्टियां मर जाएंगी खामखाह।

दफ्तर के स्टैंड में स्कूटर खड़ा करने के बाद वह गेट की तरफ बढ़ा, कि तभी जी में आया, क्यों न चाय वाले के पैसे दे दिए जाएं। दो मिनट लगेगा और उससे पूछ भी लेंगे कि कल पैसे मांगने के लिए टोका क्यों नहीं।

कैंटीन वाले ने न उसकी तरफ देखा, न उसकी कोई सफाई सुनी। अलबत्ता उसने पैसे तुरंत रख लिए और काम करने वाले लड़कों को जल्दी-जल्दी हाथ चलाने के लिए कहकर खुद समोसे बनाने में जुटा रहा। कुछ संकोच के साथ प्रकाश ने उसे दुबारा टोककर पूछा कि कल वह खुद तो किसी चिंता में था, लिहाजा पैसे देने का ध्यान नहीं रहा लेकिन पैसे न मांगने की गलती उसके जैसे खुर्राट दुकानदार से कैसे हो गई?

'पैसे कहां भागे जा रहे हैं साहब', जैसा कोई औपचारिक वाक्य बोलकर कैंटीन वाले ने बात टालने की कोशिश की लेकिन प्रकाश ने थोड़ा और कुरेदा तो उसने कहा- 'साहब, आपके यहां खाकर चुपचाप निकल लेने वाले लोग कम नहीं हैं इसीलिए लड़कों को बेझिझक पैसे मांगने के लिए बोल रखा है। बेशर्मी करके चलते-चलते मैं खुद भी दोहरा ही देता हूं। लेकिन कल शायद मेरा ध्यान कहीं इधर-उधर चला गया। आप बैठे थे, फिर अचानक कहां गायब हो गए, पता ही नहीं चला। बाद में मैंने लड़कों को डांटा लेकिन अपने पांच-सात रुपये तो मैं सबर ही कर चुका था...रोज ही करने पड़ते हैं साहब, क्या करें...।'

किस्साकोताह यह कि दुकानदार से बात करने के बाद प्रकाश की मुश्किल कम होने के बजाय कुछ और बढ़ गई। दफ्तर में सीट पर बैठते-बैठते सपने में औरत का रोना उसे कुछ ज्यादा ही शिद्दत से याद आया। यहां तक कि उसे लगने लगा कि यहीं, कमरे के आसपास ही कोई रो रहा है।

झटके में बाहर निकलकर, थोड़ा आगे बढ़कर उसने देखा कि बॉस के कमरे में टीवी चल रहा है। रात में घटी किसी भारी दुर्घटना के समाचार आ रहे हैं और दृश्य में लाइन से सफेद मारकीन में बांध-बांधकर लिटाई गई लाशों के करीब बैठी औरतें और अन्य परिजन विलाप कर रहे हैं।

1 comment:

अभय तिवारी said...

पहले तो अपने पाठकों को ग़ैब का मायने बतायें..मुझे लगता नहीं बहुत लोग इस शब्द का अर्थ समझते होंगे.. संकोच में पूछें भले ना..
रही बात दास्तान की.. तो एक विस्मय बना हुआ है.. जो भली बात है.. जिज्ञासा भी है.. क्या होगा पानी में नमक की तरह घुल जाने वाले प्रकाश का.. और उसकी व्यथा का.. ?